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सर्वदर्शनसंग्रहेनञ् निरर्थक है तो उत्तर पद के साथ कैसे मिल सकेगा ? इस प्रकार अभाव न मानने पर 'न' का समर्थन करने का प्रश्न उठ खड़ा हो जाता है। ]
किन्तु ये तर्क व्यर्थ के हैं । उनचास वर्गों के बीच कोई भी वर्ण अभाव के अर्थ में नहीं मिलता ( देखा जाता ) है । इसलिए वर्ण होने के कारण नकार भो उस ( अभाव ) के अर्थ में सिद्ध नहीं होता। [ यह विवेचन अनुमान के रूप में है जिसका पूर्ण रूम ऐसा हो सकता है
(१) न-कार अभावार्थ नहीं है । ( प्रतिज्ञा ) ( २ ) क्योंकि यह वर्ण है । ( हेतु) (३) जैसे अकार आदि दूसरे वर्ण हैं । ( उदाहरण)
उनचास वर्गों की संख्या इस तरह पूर्ण होती है-१६ स्वर, २५ स्पर्श वर्ण, ४ अन्तःस्थ तथा ४ ऊष्म वर्ण ।] ___ न चैवमनुशासनविरोधः। तदन्य-तदभाव-तद्विरुद्धष्वर्थेषु अनुशासनस्यैवमर्थः स्यात् । तथा हि-चेतनानां मध्ये कश्चन कस्यचिन्मित्रं, कश्चन कस्यचिदुदासीनः तथवाचेतनानामपि । तदन्यपदेन तदुदासीनो नकारार्थः। विरुद्धपदेन शत्रुर्नकारार्थः । तदभावपदेन मित्रं नकारार्थः ।
अभाव न मानने से [ पाणिनि के ] अनुशासन का भी विरोध नहीं होता। [ नन से मुख्यत: ये तीन अर्थ प्रतीत होते हैं-] तदन्य ( ... से भिन्न), तदभाव (.."का अभाव) तथा तद्विरुद्ध ( ..."से विरुद्ध ) । इन अर्थों में अनुशासन का उपर्युक्त विधि से अर्थ हो सकता है । देखिए-चेतन पदार्थों के बीच कोई किसी का शत्रु है, कोई किसी का मित्र, तो कोई किसी से उदासीन ही है । यही दशा अचेतन पदार्थों की भी है। तदन्य शब्द से नकार का अर्थ समझें-उससे उदासीन । विरुद्ध शब्द से नकार का अर्थ शत्रु है । तदभाव शब्द से नकार का अर्थ मित्र है। [ इस प्रकार दूसरे अर्थों में नकार के अर्थों की व्याख्या की जाती है।]
तथा चाब्राह्मणपद एवैतत्त्रयं प्रतीयते-शूद्र इत्युदासीनो, यवन इति शत्रुः, क्षत्रिय इति मित्रम् । एवं सर्वत्र नप्रयोगस्थले द्रष्टव्यमिति न कश्चिदभावो भावव्यतिरिक्तः सम्भवति। तस्मादुक्तया रीत्या भ्रमप्रसिद्धया विवादाध्यासिताः प्रत्यया यथार्थाः, प्रत्ययत्वात, दण्डीति प्रत्ययवदिति सिद्धम् ।
इस प्रकार ‘अब्राह्मण' शब्द में ही उक्त तीनों को प्रतीति होती है-शूद्र के प्रति [ नकारार्थ ] उदासीन है, यवन के प्रति शत्रु और क्षत्रिय के प्रति मित्र है। [ तात्पर्य यह हुआ कि अब्राह्मण शब्द में यदि 'अ' का अर्थ तदन्य लेंगे तो शूद्र अर्थ होगा। यदि विरुद्ध