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________________ शांकर-चर्शनम् ७०३ अर्थ में 'अ' मानें तो अब्राह्मण = यवन । अन्त में यदि अभाव अर्थ लें तो अब्राह्मण का अर्थ क्षत्रिय होगा। ] इसी तरह नत्र का प्रयोग होनेवाले सभी स्थानों में देखना चाहिए । अतः भाव के अतिरिक्त अभाव नाम का कोई पदार्थ मिलना सम्भव नहीं है।। ___ इसलिए उपर्युक्त रीति से भ्रम की सिद्धि कर लें [ = 'इदं रजतम्' में ग्रहण और स्मरण के रूप में दो ज्ञान रहने पर भी वास्तविक व्यवहार होने पर प्रवृत्ति के विसंवादित ( निष्फल ) हो जाने से कुछ लोग भ्रम का व्यवहार करते हैं, वस्तुतः तो वह है नहीं । इसके बाद अनुमान होता है-] (१) विवादास्पद प्रतीतियां यथार्थ ( Real ) हैं-प्रतिज्ञा । ( २ ) क्योंकि ये प्रतीतियां हैं-हेतु । ( ३ ) जैसे दण्डी ( दण्ड धारण करनेवाला ) की प्रतीति होती है-उदाहरण। यह सिद्ध होता है। विशेष—यहाँ पर मीमांसकों ने अपने लम्बे पूर्वपक्ष का अन्त किया। उनका लक्ष्य यही था कि मिथ्याज्ञान का खण्डन करें। मिथ्याज्ञान के रूप में वेदान्त में स्वीकृत सभी प्रतीतियों को वे सत्य और यथार्थ मानते हैं। 'इदं रजतम्' या 'पीतः शङ्खः' कोई भी उदाहरण उन्हें अपनी मान्यता से हटा नहीं सका। अब शंकराचार्य अपने प्रबल तर्कों के चपेटों से प्रभाकर-मत का मस्तक चूर्ण करेंगे। (१३. मिथ्याज्ञान को सत्ता है शंकर का उत्तरपक्ष ) तदपरे न क्षमन्ते । इह खलु निखिलप्रेक्षावान् समीहिततत्साधनयोरन्यतरप्रवेदने प्रवर्तते। न च रजतमर्थयमानस्य शुक्तिकाशकलज्ञानं तद्रूपमनुभावयितुं प्रभवति । शुक्तिकाशकलस्य समीहिततत्साधनयोरन्यतरभावाभावात् । नापि रजतस्मरणं पुरोवतिनि प्रवृत्तिकारणम् । तस्यानुभवपारतन्त्र्यतयाऽनुभवदेश एव प्रर्वतकत्वात् ।। इस मत को दूसरे लोग सह नहीं पाते। यह निश्चित है कि सभी विवेकशील मनुष्य अभीष्ट वस्तु या उसकी प्राप्ति के साधन इन दोनों में किसी एक के ज्ञान में ही प्रवृत्त होते हैं । ऐसा नहीं देखा जाता कि जो व्यक्ति रजत का इच्छुक है उसे सीपी के टुकड़े का ज्ञान उस ( रजत के ) रूप का अनुभव करा दे। [ सीपी के टुकड़े में रजत की सत्ता नहीं है । 'इदम्' के रूप में सीपी का टुकड़ा ज्ञात है किन्तु रजत चाहनेवाले व्यक्ति को न तो उससे अपनी अभीष्ट वस्तु का ही स्वरूप मालूम होता न उसके साधन का ही। क्योंकि ] सोपी का टुकड़ा उस व्यक्ति का न तो अभीष्ट ही हो सकता न अभीष्ट-प्राप्ति का साधन हो । इसके अतिरिक्त रजत का स्मरण ( जो ये मीमांसक मानते हैं ] सामने में विद्यमान पदार्थ में प्रवृत्ति उत्पन्न नहीं कर सकता क्योंकि स्मरण अनुभव के अधीन रहता है, इसलिए
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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