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________________ शांकर-चर्शनम् ७२५ इदमंश तथा मिथ्या रजतांश, इन दोनों अंशों के अन्योन्यात्मक होने के कारण एकाकार ( Singular ) हो गया है । यदि विषय एक है तो विषय से ही व्याप्त फल भी एक ही होगा; अतः ज्ञान ( फल ) की एकता का उपचार ( व्यवहार ) होता है। [ : ज्ञान एक है-यह सिद्ध हुआ।] तदुक्तम् ४३. शुक्तीदमंशचैतन्यस्थिताविद्या विजृम्भते । रागादिदोषसंस्कारसचिवा रजतात्मना ।। ४४. इदमाकारवत्यक्तचैतन्यस्था तथाविधा। विवर्तते तद्रजतज्ञानाभासात्मनाप्यसौ ॥ ४५. सत्यमिथ्यात्मनोरक्यादेकस्तद्विषयो मतः । तदायत्तफलकत्वाज्ञानक्यमुपचर्यते ॥ इति । पञ्चपादिकायामपि 'फलैक्याज्ज्ञानक्यमुपचर्यते'-इत्यभिप्रायेण 'सा चैकमेव ज्ञानमेकफलं जनयति', इत्युक्तम् । ____ उसे कहा गया है--'सीपी में स्थित 'इदम्' अंश के चैतन्य में रहनेवाली अविद्या राग आदि दोषों के संस्कार के साथ-साथ रजत के रूप में परिणत होती है ॥ ४३ ॥ उसी प्रकार 'इदम्' के आकार की वृत्ति से अवच्छिन्न ( अक्त = अञ्+क्त ) चैतन्य में रहनेवाली अविद्या भी उस रजत-ज्ञान की प्रतीति (आभास-वृत्ति ) के रूप में विवर्तित होती है ॥ ४४ ॥ सत्य और मिथ्या के रूप में दोनों के एकात्मक रहने से उसका विषय भी एक ही माना गया है । उस ( विषय ) के अधीन रहनेवाला फल भी एक है, अतः ज्ञान की एकता कही जाती है ॥ ४५ ॥' पंचपादिका ( शारीरक-भाष्य के चतुःसूत्री-भाग की पद्मपादाचार्य-विरचित व्याख्या ) में भी फल की एकता के कारण ज्ञान की एकता भी मानी जाती है' इस अभिप्राय से कहा गया है कि वह अविद्या एक फलवाले एक ही ज्ञान को उत्पन्न करती है । (१७. त्रिविध सत्ता तथा अनिर्वचनीयख्याति ) । ननु शुक्तिकामस्तके भाव्यमानस्य कलधौतस्य तत्रैव सत्यत्वाभ्युपगमे नेदं रजतमिति निषेधः कथं प्रभवेदिति चेन्न । प्रातिभासिकसत्यत्वेऽपि व्यावहारिकसत्यत्वाभावेन प्रतिपन्नोपाधौ प्रतियोगित्वसम्भवात् । तदुक्तं पञ्चपादिकाविवरणे ( पृ० ३१)-त्रिविधं सत्त्वम् । परमार्थसत्त्वं ब्रह्मणः। अर्थक्रियासामध्यं सत्वं मायोपाधिकमाकाशादेः । अविद्योपाधिकं सत्त्वं रजतावेरिति ।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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