SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 722
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शांकर-दर्शनम् ६८५ इसीलिए भाष्यकार ने दो दृष्टान्तों का उदाहरण दिया है-'सीपी चाँदी की भांति प्रतीत होती है ( निरुपाधिक ) और एक चन्द्रमा दो चन्द्रमाओं की तरह दिखलाई पड़ता है ( सोपाधिक )।' अवशिष्ट बातें तो शास्त्र में ही स्पष्ट की हुई हैं, अतः विस्तार होने के भय से हम उपरत होते हैं । इस प्रकार वेदान्तियों का सिद्धान्त है कि दृक् ( आत्मा ) और दृश्य ( प्रपञ्च ) ये दो पदार्थ ही हैं, इस तरह सब कुछ स्पष्ट है। ( ११. अध्यास का मीमांसकों के द्वारा खण्डन-लम्बा पूर्वपक्ष ) ___ अत्र प्रभाकरः-शुक्तिका रजतवदवभासत इति दृष्टान्तो नेष्टः । रजतप्रत्ययस्य शुक्तिकालम्बनत्वानुपपत्तेः । तथा हि-इदं रजतमिति प्रतीतौ शुक्तरालम्बनत्वं पुरोदेशसत्तामात्रेणावलम्ब्यते, कारणत्वेन, भासमानत्वेन वा ? नाद्यः । पुरोवर्तिनां लोष्टादीनामप्यालम्बनत्वप्रसङ्गात् । - इस प्रसंग में प्रभाकर का कहना है कि सोपी रजत के रूप में प्रतीत होती है, शंकराचार्य का यह दृष्टान्त ठीक नहीं है। रजत का ज्ञान सीपी के विषय में हो जाय, ऐसा सम्भव नहीं है। [ पट के विषय में कभी भी घट का ज्ञान नहीं हो सकता है । जो विषय है उसी का ज्ञान होगा, दूसरे का नहीं। ] इसे इस रूप में देखें-'इदं रजतम्' इस प्रतीति में [ चांदी के ज्ञान को ] सीपी के विषय में क्यों मानते हैं ? क्या उसकी सत्ता सामने है इसीलिए या वह सीपी कारण के रूप में है इसलिए या केवल प्रतीत होती है इसलिए ? (१) यदि आप प्रथम विकल्प के अनुसार [ चांदी के ज्ञान को सीपी-विषयक इसलिए मानते हैं, कि सीपी को सत्ता ही सामने हैं तो यह कल्प] ठीक नहीं है, क्योंकि तब तो पत्थर आदि को भी जो सामने पड़े हैं, विषय ( आलम्बन ) बनाया जा सकता है। [ सामने केवल सीपी ही तो नहीं है जिसको प्रतीति चांदी के रूप में हो जायगी । पत्थर, मिट्टी आदि सारे पदार्थ सामने पड़े हैं। इन्हें रजतज्ञान का विषय क्यों नहीं बनाते ? इससे पता लगता है कि सोपी विषय हो और प्रतीति रजत की हो, यह कभी भी सम्भव नहीं। अब दूसरे पक्ष को उठाते हैं।] विशेष—यहां से अख्यातिवादी मीमांसकों का मत दिया जा रहा है। इसे संक्षेप में समझ लें । सोपी में जो 'इदं रजतम्' का ज्ञान होता है यह भ्रम नहीं, बल्कि यथार्थ ज्ञान है । वस्तुतः इसमें दो ज्ञान हैं । इदम्' प्रत्यक्षज्ञान है और 'रजतम्' स्मरणात्मक ज्ञान है जो पहले से देखे गये रजत के संस्कार के उद्बोध के कारण होता है । 'इदम्' ( यह ) के द्वारा सामने वर्तमान द्रव्यमात्र का बोध होता है । दोष के कारण उसमें अवस्थित सोपी का ग्रहण नहीं होता । तो द्रव्यमात्र का ग्रहण हो जाने पर, रजत के सादृश्य के कारण, उसके संस्कार का उद्बोध करके, वह द्रव्य रजत की स्मृति को उत्पन्न कर देता है। यह स्मृति ग्रहण का स्वभाव लिये हुए रहती है । दोष के कारण केवल ग्रहण में ही अवस्थित रहती है। इस
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy