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________________ रामानुज-दर्शनम् १९९ २८. ततः स्वाभाविकाः पुंसां ते संसारतिरोहिताः। आविर्भवन्ति कल्याणाः सर्वज्ञत्वादयो गुणाः॥ २९. एवं गुणाः समानाः स्युर्मुक्तानामीश्वरस्य च । सर्वकर्तृत्वमेवैकं तेभ्यो देवे विशिष्यते ॥ ३०. मुक्तास्तु शेषिणि ब्रह्मण्यशेषे शेषरूपिणः । सर्वानश्नुवते कामान्सह तेन विपश्चिता ॥ इति । 'निदिध्यासन ( ध्यान Meditation ) के रूप में भक्ति रखने पर हरि प्रसन्न हो जाते हैं तथा कर्मों के समूह के रूप जो अविद्या है उसे तुरत नष्ट कर देते हैं ।। २७ ॥ उसके बाद संसार ( आवागमन ) को नष्ट कर देनेवाले कल्याणकारी सर्वज्ञत्व आदि गुण प्रकट होते हैं जो मनुष्यों में स्वाभाविक रूप से हैं ॥ २८ ।। इस प्रकार मुक्तों और ईश्वर के सारे गुण समान हो जाते हैं, केवल एक गुण ईश्वर में विशेष है-सबों का निर्माण करना ( नियमन करना भी इसी में है ) ॥ २९॥ अशेष ( जो किसी का अंग नहीं है, Absolute पूर्ण ) शेषी ( अंगी ) में शेष ( अंग ) के रूप में ये मुक्त पुरुष हो जाते हैं ( ब्रह्म में उसके अंग के रूप में मिल जाते हैं)। उस ब्रह्ममय ज्ञान के साथ-साथ उसक सभी गुणों की भी प्राप्ति ये ( मुक्त ) लोग करते हैं ॥ ३० ॥ विशेष-मुक्त पुरुषों और ईश्वर में सभी गुणों की समानता होने पर भी कुछ विलक्षणता ही रह जाती है। जीव किसी भी अवस्था में ( मुक्त होने पर भी ) ईश्वर के समान संसार का निर्माण तथा चित्-अचित् का नियन्त्रण नहीं कर सकता। इसी आशय से व्यास ने ब्रह्मसूत्र में लिखा है--जगद्वयापारवर्ज प्रकरणादसन्निहितत्वाच्च (४।४।१७-१८) जड़पदार्थ की उत्पत्ति, पालन और संहार तथा चित्-अचित् का नियमन करना, यह जगत् का व्यापार है। इन्हें छोड़कर ही मुक्त पुरुष में ईश्वरता ( ऐश्वर्य ) आती है। कारण यह है कि कुछ श्रतिवाक्यों में ऐसे प्रकरण आये हैं, जैसे-यता वा इमानि भूतानि जायन्ते० ( ते० ३.१), यः पृथिवीमन्तरो यमयति (बृ. ३।७।३ ) इत्यादि । पहली श्रुति में पदार्थों की उत्पत्ति आदि का उल्लेख है, दूसरी में ईश्वर की नियामक-शक्ति का। इसके अतिरिक्त उपयुक्त व्यापार में मुक्त पुरुष का सन्निधान का नहीं । अतः मुक्त की ईश्वरता सीमित है । ३०वें श्लोक में ब्रह्म को शेषी अर्थात् अंगी कहा गया है क्योंकि चित् और अचित् इसके अंग हैं। ईश्वर स्वयं में पूर्ण है, किसी का अंग नहीं है, इसलिए उसे अशेष कहा गया है । ये मुक्त पुरुष उसका अंग बन जाते हैं । अन्तिम पंक्ति के दो अर्थ हो सकते हैंएक में 'विपश्चिता' को अप्रधान कर्ता बना सकते हैं, दूसरे में अप्रधान कर्म । तृताया विभक्ति में सह का प्रयोग बतलाता है कि वह शब्द अप्रधान हो जायगा । यदि यह अप्रधान कर्ता है तब मुक्तों की प्रधानता रहेगी-मुक्ता: तेन ईश्वरेण मह सर्वान् कामान्
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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