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________________ २०० सर्वदर्शनसंग्रहे ( ईश्वरगुणान् ) प्राप्नुवन्ति । मुक्त लोग प्रधानतः प्राप्त करते हैं, ईश्वर गौणतः । इसमें दोष होता है कि ईश्वर से मुक्तों को अधिक ऊंचा स्थान मिला। दूसरी ओर यदि यह अप्रधान कर्म बन जाय तो सारी बात सहज है-मुक्त पुरुष ईश्वर के गुणों की प्राप्ति प्रधानतः करते हैं, साथ-साथ ईश्वर की प्राप्ति भी करते हैं। अप्रधान कर्म बन जाने पर ईश्वर की महत्ता में कुछ कमी नहीं हुई, बल्कि ईश्वर से उसके गुणों का माहात्म्य अधिक दिखलाया गया है। यह अच्छा ही है। (२०. ब्रह्म-जिज्ञासा का अर्थ ) तस्मात्तापत्रयातुरैरमृतत्वाय पुरुषोत्तमादिपदवेदनीयं ब्रह्म जिज्ञासितव्यमित्युक्तं भवति । 'प्रकृतिप्रत्ययौ प्रत्ययार्थप्राधान्येन सह ब्रूत इतः सनोऽन्यत्र' इति वचनबलादिच्छाया इष्यमाणप्रधानत्वादिष्यमाणं ज्ञानमिह विधेयम् । तच्च ध्यानोपासनादिशब्दवाच्यं वेदनं न तु वाक्यजन्यमापातज्ञानन् । पदसन्दर्भश्राविणो व्युत्पन्नस्य विधानमन्तरेणापि प्राप्तत्वात् । इसलिए तीन प्रकार के तापों से व्याकुल पुरुषों को अमरत्व ( मोक्ष ) की प्राप्ति के लिए पुरुषोत्तम आदि शब्दों के द्वारा बोधित ब्रह्म की जिज्ञासा करनी चाहिए-पही कहने का मतलब है। [ सन्-प्रत्यय के प्रकरण में पढ़ा गया व्याकरणशास्त्र का यह नियम है कि ] इस सन्-प्रत्यय के प्रकरण को छोड़कर दूसरे स्थानों में जब प्रकृति (धातु या प्रातिपादिक Root, stem ) और प्रत्यय ( Suflix ) मिलकर अर्थ का प्रकाशन करते हैं तब प्रत्यय के अर्थ की प्रधानता समझी जाती है-इस वाक्य के बल से [ 'जिज्ञासा' (ज्ञा जानना, सन्-प्रत्यय = इच्छा करना ) शब्द में, जहाँ प्रत्यय इच्छा के अर्थ में है ] इच्छा की प्रधानता नहीं है, बल्कि इष्ट वस्तु की प्रधानता होती है। इसलिए प्रस्तुत प्रसंग में इच्छा किया जानेवाला ( अभीष्ट Desired ) ज्ञान ही विधेय के रूप में है [ जिज्ञासा का अर्थ 'ज्ञानविषयक इच्छा' नहीं है, बल्कि 'इच्छा का विषय ज्ञान' है-इच्छा ( प्रत्ययार्थ ) की प्रधानता नहीं है, ज्ञान (प्रकृति ) ही प्रधान है, ऐसा सन्-प्रत्यय का नियम है।] . . उस ज्ञान का बोध ध्यान, उपासना आदि शब्दों के द्वारा होता है, न कि केवल वाक्य का श्रवण करने के बाद ही उत्पन्न अर्थज्ञान । व्युत्पन्न पुरुष पदों का सन्दर्भ ( Context ) मुनकर ही, बिना किसी विधान ( Injunction ) के ही, उनका अर्थ समझ लेता है। [ कहने का अभिप्राय यह है कि ब्रह्म का ज्ञान केवल वाक्यों को सुनकर उनका अर्थ समझ लेने मे नहीं होता जैसा कि लौकिक ज्ञान में होता है। भूगोल में पढ़ते हैं कि कोलम्बो लंका की ग़जधानी है और हमें इसका ज्ञान हो जाता है । ब्रह्म के ज्ञान में ऐसी बात नहीं है। ध्यान, उपासना आदि को ब्रह्म-नान कहते हैं, केवल ऊपरी ज्ञान को नहीं। यदि ऐसा नहीं होता नो 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' में किया गया ज्ञान का विधान व्यर्थ ही था। लौकिक वाक्यों में दिये गये ज्ञान के बाद यह नहीं कहा जाता है कि इस वाक्य को जानना चाहिए, विधान
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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