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________________ ३५६ सर्वदर्शनसंग्रहे हैं, प्रत्युत नित्य हैं । दिक्, काल और मन में कोई विशेष गुण है ही नहीं। परमात्मा में अवस्थित जो बुद्धि आदि विशेष गुण हैं वे नित्य हैं, जन्य नहीं । जीवात्मा के बुद्धि आदि गुण जन्य हैं पर संयोगाजन्य नहीं, क्योंकि वे मन के संयोग से उत्पन्न होते हैं ( तो संयोगजन्य ही हुए, संयोगाजन्य नहीं)। तो सभी दशाओं में आकाश ही ऐसा बचता है जो संयोगाजन्य तथा जन्य विशेष गुण को धारण करता है तथा उस गुण के समानाधिकरण विशेष का भी आधार है। इस लक्षण में कहना केवल इतना ही था कि शब्द जिसका गुण हो वही आकाश है। इतना घटाटोप वैचित्र्य का प्रदर्शन करने के लिए ही हुआ है। हाँ, यह कह सकते हैं कि विशेष का आधार होने पर किन-किन में परस्पर साधर्म्य होगा या विशेष गुण के समानाधिकरण विशेष का आधार होने पर किन में साधर्म्य होगा-इस प्रकार के ज्ञान की आवश्यकता तव पड़ती है जब इसी लक्षण के अनुमान में हम व्याप्ति के उदाहरण दिखलाने लगते हैं। आकाश का लक्षण वास्तव में संसृष्ट ( Complicated ) हो गया है। ] काल का लक्षण-काल वह द्रव्य है जो व्यापक (विभु Pervasive ) हो तथा दिक् ( Space ) से असमवेत परत्व के असमवायि-कारण का अधिकरण हो। [ परत्व ( Distance ) दो प्रकार का होता है--स्थानगत अर्थात् समीप की वस्तु की अपेक्षा दूरस्थ वस्तु में विद्यमान परत्व ( Spatial distance ) तथा कालगत अर्थात् छोटी अवस्थावाले पदार्थ में विद्यमान परत्व ( Temporal distance ) । स्थानगत परत्व का असमवायि-कारण होता है दिक् ( स्थान ) और वस्तु का संयोग । इसमें दिक् समवेत रहता है और काल असमवेत, क्योंकि संयोग दो ही पदार्थों का हो सकता है। कालगत परत्व का असमवायी कारण है काल और वस्तु का संयोग । इसमें दिक् असमवेत रहता है, काल समवेत । काल इसो का आधार है अर्थात् काल में ही काल-वस्तु-संयोग होता है । 'विभु' का प्रयोग करने से ज्येष्ठ मे अतिव्याप्ति नहीं होती। संयोग चूंकि दो वस्तुओं का होता है इसलिए काल और ज्येष्ठ वस्तु दोनों में उसकी सता रह सकती है। अन्तर यही है कि काल विभु होता है, ज्येष्ठ वस्तु विभु नहीं हो सकती। 'परत्व' का प्रयोग करने से आकाश और आत्मा में अतिव्याप्ति रुकती है, क्योंकि आकाश या आत्मा परत्व का असमवायी कारण नहीं हो सकता । 'दिक् से असमवेत' कहने से दिशा में अतिव्याप्ति रुकती है।] दिक का लक्षण-जो काल न हो, किसी विशेष गुण से रहित हो तथा महती ( विभु, व्यापक ) हो वही दिक् है । [ काल में अतिव्याप्ति रोकने के लिए 'अकाल' कहते हैं। काल भी विशेष गुण से शून्य तथा विभु होता है। दिक् उक्त विशेषणों से युक्त होने पर भी काल नहीं है । आकाश और आत्मा में अतिव्याक्ति रोकने के लिए विशेष गुण से रहित' ऐसा विशेशण लगाया गया है। आकाश का विशेष गुण शब्द है, आत्मा का बुद्धि
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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