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पूर्णप्रज्ञ-दर्शनम्
२३३ भी नित्य नहीं हैं; नित्य कोई है तो मोक्ष- इसलिए उसी की प्राप्ति के लिए बुद्धिमानों को प्रयत्न करना चाहिए' ॥ २७ ॥
मोक्षश्च विष्णुप्रसादमन्तरेण न लभ्यते। २८. यस्य प्रसादात्परमात्तिरूपादस्मात्संसारान्मुच्यते नापरेण ।
नारायणोऽसौ परमो विचिन्त्यो मुमुक्षुभिः कर्मपाशादमुष्मात् ॥
इति नारायणश्रुतेः। २९. तस्मिन्प्रसन्ने किमिहास्त्यलभ्यं धर्मार्थकामैरलमल्पकास्ते। समाश्रिताद् ब्रह्मतरोरनन्तात् निःसंशयं मुक्तिफलं प्रयान्ति ॥
(वि० पु० १।१७४९१) इति विष्णुपुराणोक्तेश्च । प्रसादश्च गुणोत्कर्षज्ञानादेव नाभेदज्ञानावित्युक्तम् ।
विष्णु की कृपा के बिना मोक्ष नहीं मिलता जैसा कि नारायण उपनिषद् में कहा गया है-'जिनकी कृपा पाकर परम दुःख-रूपी इस संसार से लोग मुक्त हो जाते हैं, दूसरे लोग (बिना कृपा पाये ) नहीं । इस कर्म के जाल से मुक्त होने की इच्छा रखनेवालों को उन परम नारायण का चिन्तन (ध्यान ) करना चाहिए।' ॥ २८ ॥ विष्णुपुराण में भी कहा गया है-'उन भगवान् ( विष्णु ) के प्रसन्न हो जाने पर इस लोक में कौन पदार्थ दुर्लभ . है ? धर्म, अर्थ और काम की प्रार्थना करना व्यर्थ है, क्योंकि वे बहुत थोड़े हैं ( अस्थायी हैं ) । अनन्त ब्रह्मवृक्ष पर आश्रित रहकर [ मुक्ति के इच्छुक लोग ] निःसन्देह मुक्तिरूपी फल प्राप्त करते हैं।' ॥ २९ ॥ यह कहा गया है कि गुणों के उत्कर्ष का ज्ञान होने से ही [ भगवान् की ] कृपा प्राप्त होती है, अभेद का ज्ञान होने से नहीं ( जैसा कि अद्वैतवादी कहा करते हैं)।
( ११. 'तत्वमसि' का अर्थ ) न च तत्त्वमस्यादितादात्म्यव्याकोपः। श्रुतितात्पर्यापरिज्ञानविजृम्भणात् ।
३०. आह नित्यपरोक्षं तु त्वच्छब्दो ह्यविशेषतः ।
त्वंशब्दश्चापरोक्षार्थं तयोरक्यं कथं भवेत् ॥ ३१. आदित्यो यूप इतिवत्सादृश्यार्था तु सा श्रुतिः । इति । तथा च परमा श्रुतिः३२. जीवस्य परमैक्यं तु बुद्धिसारूप्यमेव तु।
एकस्थाननिवेशो वा व्यक्तिस्थानमपेक्ष्य सः॥ ३३. न स्वरूपैकता तस्य युक्तस्यापि विरूपतः।
स्वातन्त्र्यपूर्णतेऽल्पत्वपारन्ये विरूपते ॥ इति ।