________________
सांख्य दर्शनम्
५.४५
नहीं है अर्थात् भिन्न है, इसलिए गौ की अवस्था - विशेष अश्व नहीं है । वह उससे पृथक् है । ] यहाँ पर पट तन्तुओं का धर्म ( अवस्था - विशेष ) है अतः भिन्न नहीं है ।
[ अब इसमें शंका उठती है कि ] तब तो अर्थात् तन्तु और पट में अभेद मान लेने पर प्रत्येक तन्तु ही आवरण का कार्य करता ( जो काम कपड़े का है वही काम सूतों से भी चलता ) । यह शंका ठीक नहीं क्योंकि उन सूतों के संस्थान ( विशेष रूप से सजाये गये रूप ) में अन्तर रहने के कारण [ जब उन सूतों से ] पट-रूप का आविर्भाव ( अभिव्यक्ति Manifestation ) हो जाता है तभी ये आच्छादन - रूपी कार्य के सम्पादन में समर्थ होते हैं । [ पट और तन्तु में संस्थान या सजावट का अन्तर है । जब ये तन्तु विशेष रूप से सजा दिये जाते हैं तभी पट का आविर्भाव होता है जो आच्छादन के काम में आता 1 ] जैसे कछुए के अंग उसके शरीर में प्रवेश करने पर तिरोहित कहलाते हैं और निकलने पर आविभूत कहलाते हैं, वैसे ही सूत आदि कारणों में वस्त्रादि विशेष रूप ( कार्य ) निकलने या आविर्भूत होने पर 'उत्पन्न हो रहे हैं' ऐसा कहलाते हैं; प्रवेश करने पर या तिरोहित हो जाने पर 'नष्ट हो रहे हैं' ऐसा कहते हैं । '
न पुनरसतामुत्पत्तिः सतां वा विनाशः । यथोक्तं भगवद्गीतायाम् - नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
( गी० २।१६ ) इति । ततश्च कार्यानुमानात्तत्प्रधान सिद्धिः । तदुक्तम् - ८. असदकरणादुपादानग्रहणात्सर्वसम्भवाभावात् । शक्तस्य शक्यकरणात्कारणभावाच्च सत्कार्यम् ॥ ( सां० का ० ९ ) इति ।
इसके अतिरिक्त, असत् वस्तु की उत्पत्ति या सत् वस्तु का विनाश भी नहीं होता । जैसा कि भगवद्गीता में कहा है – 'असत् का अस्तित्व नहीं होता तथा सत् का अभाव नहीं होता' ( गीता २।१६ ) । इस प्रकार कार्य के द्वारा अनुमान करके इन वस्तुओं के मूलका - रण प्रधान या प्रकृति की सिद्धि की जा सकती है। उसे कहा है
-
'[ कारण में ] कार्य विद्यमान है क्योंकि ( १ ) असत् को कार्य के रूप में परिणत नहीं किया जा सकता, ) [ कार्य की उत्पत्ति के लिए ] उसके उपादान कारण ( जैसे घट का मिट्टी, पट का सूत ) का ग्रहण अवश्य करना पड़ता है अर्थात् कार्य अपने उपादान कारण से नियमपूर्वक सम्बन्ध रहता है । [ यदि कार्य पहले से ही असत् हो तो उसका सम्बन्ध नहीं हो सकता ], (३) सभी कार्य सभी कारणों से उत्पन्न नहीं होते हैं [ किसी विशेष कारण से विशेष कार्य उत्पन्न होता है, यदि कार्य कारण से असम्बद्ध रहता तो ऐसा
१. तुलनीय - यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः ।
३५ स० सं०
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठता ॥ ( गी० २५८ )