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________________ रामानुज दर्शनम १७१ स्वरूप यद्यपि स्वयं प्रकाशित होनेवाला चैतन्य है, इसका गुण भी चेतन्य ही है ( जो गण प्रयोग से माना जाता है ) । विशेष -- जिस प्रकार प्रभा मुख्यतः द्रव्य है, गौण रूप से उसे गुण मानते हैं; उसी प्रकार ज्ञान भी मुख्यतः द्रव्य ( आत्मा का स्वरूप है ), गौणरूप से ही उसे गुण के रूप में समझते हैं, क्योंकि आत्मा के रूप में दूसरे द्रव्यों से सम्बद्ध होकर गुण के ही समान हो जाता है । अब श्रुति -प्रमाण से सिद्ध करते हैं कि आत्मा का स्वरूप भी ज्ञान है और गुण भी ज्ञान ही है । तथा च श्रुतिः - स यथा सैन्धवधनोऽनन्तरोऽबाह्यः कृत्स्नो रसघन एवंवं वा अरेऽयमात्मानन्तरोऽबाह्यः कृत्स्नः प्रज्ञानघन एव ( वृ० उ० ४।५।१३ ) । अत्रायं पुरुषः स्वयंज्योतिर्भवति ( वृ० उ० ४।३।९ ) । न विज्ञातुविज्ञातेविपरिलोपो विद्यते ( बृ० उ० ४।३।३० ) । अथ यो वेदेदं जिघ्राणीति स आत्मा ( छा० ८।१२।४ ) । योऽयं विज्ञानमयः प्राणेषु हृद्यन्तर्ज्योतिः पुरुष: ( वृ० उ० ४।३।७ ) । एष हि द्रष्टा स्प्रष्टा श्रोता घ्राता रसयिता ममता बोढा कर्ता विज्ञानात्मा पुरुषः ( प्रश्नो० ४।९ ) इत्यादिका । इसके लिए श्रुति -प्रमाण भी है-जैसे नमक का टुकड़ा अन्तर-बाह्य का भेद बिना किये ही ( सर्वत्र ) रस का ही खण्ड है, उसी प्रकार यह आत्मा भी अन्तर बाह्य के विभाजन से शून्य होकर ( सर्वत्र ) प्रज्ञान का ही खण्ड है ( इसमें आत्मा को ज्ञान स्वरूप बतलाया गया है; वृ० उ० ४।५।१३ ) । यहाँ ( स्वप्नावस्था में ) यह पुरुष ( आत्मा ) स्वयं प्रकाशित होता है ( वही, ४१३१९ ) । विज्ञाता ( आत्मा ) के ज्ञान ( गुणरूप में वर्तमान ज्ञान ) का विनाश नहीं होता ( वही, ४ | ३ | ३० ) । जो यह आत्मा है ( ज्ञान उसका गुण है; छा० ८|१२|४ ) यह पुरुष जो विज्ञान से युक्त इन्द्रियों और हृदय में भी है, वह अपने आप में प्रकाशित है ( प्रथम खण्ड में ज्ञान गुण है, फिर ज्ञान आत्मस्वरूप है - बृ० ४।३।७ ) । वह पुरुष ही दीखनेवाला, छूनेवाला, सूँघनेवाला, स्वाद लेनेवाला, मनन करनेवाला, समझनेवाला, करनेवाला ( सब जगह ज्ञान गुण है ) तथा विज्ञानस्वरूप आत्मा है ( प्र० ४।९ ) इत्यादि । समझे कि मैं इसे सूंघ रहा हूँ, वही - । विशेष- - इस प्रकार कुछ श्रुतियों में आत्मा को ज्ञानस्वरूप, कुछ में ज्ञानगुणक तथा ज्ञानस्वरूप और ज्ञानगुणक दोनों माना गया है । आत्मा ( केवल ज्ञाता ज्ञानगुणक ) है, यह कहनेवाले नेयायिक लोग भी परास्त हुए; आत्मा ज्ञानस्वरूप ही है, कहनेवाले मायावेदान्ती भी गये । कुछ में ( ८. भावरूप अज्ञान मानने में श्रुति प्रमाण नहीं है ) न च 'अनृतेन हि प्रत्यूढ़ा ' ( छा० ८।३।२ ) इति श्रुतिरविद्यायां प्रमाणमित्याश्रयितुं शक्यम् । ऋतेतरविषयो ह्यन्तशब्दः । ऋतशब्दश्व
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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