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________________ १७२ सर्वदर्शनासंबहे कर्मवचनः । 'ऋतं पिबन्ती' ( का० ३.१) इति वचनात् कृतं कर्म फलाभिसन्धिरहितं, परमपुरुषाराधनवेषं तत्प्राप्तिफलम् । अत्र तव्यतिरिक्तं सांसारिकाल्पफलं कर्मानतं ब्रह्मप्राप्तिविरोधि। य एतं ब्रह्मलोकं न विन्दन्ति अनृतेन हि प्रत्यूढाः' ( छा० ८।३।२ ) इति वचनात् । - ___ 'अनुत ( असत्य ) से ढके हुए' । छा० ८।३।२)'-यह श्रुतिवाक्य अविद्या के विषय में प्रमाण ( Authority ) है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। 'अनृत' का अर्थ है 'जो ऋत ( सत्य ) से भिन्न हो' । 'ऋत' का अर्थ है ( पुण्य ) कर्म, क्योंकि इस वाक्य में-'ऋत को पीते हुए' कहा गया है [ जिसका अर्थ है कि वे दोनों कर्म के फलों का अनुभव कर रहे हैं । ] ऋत का अर्थ है फल की कामना न रखते हुए किया गया कर्म; परम पुरुष ( ब्रह्म की आराधना के रूप में उसकी प्राप्ति का फल मिलता है। यहाँ पर उससे भिन्न, सांसारिक तथा थोड़ा फल देनेवाला कर्म ही अनृत कहा गया है जो ब्रह्म की प्राप्ति का विरोधी है। ऐसा ही श्रुतिवचन भी है जो इस ब्रह्मलोक को प्राप्त नहीं करते, वे लोग अनृत ( सांसारिक फल ) से ढके हुए हैं ( छा० ८।३।२)। _ 'मायां तु प्रकृति विद्यात्' (श्वे० उ० ४।१०) इत्यादौ मायाशब्दो विचित्रार्थसर्गकरत्रिगुणात्मकप्रकृत्यभिधायको नानिर्वचनीयाज्ञानवचनः । ५. तेन मायासहस्रं तच्छम्बरस्याशुगामिना । बालस्य रक्षता देहमेकांशेन सूदितम् ॥ . (वि० पु० १।१९।२०) इत्यादौ विचित्रार्थसर्गसमर्थस्य पारमार्थिकस्यैवासुराद्यस्त्रविशेषस्यैव मायाशब्दाभिधेयत्वोपालम्भात् । अतो न कदाचिदपि श्रुत्यानिर्वचनीयाज्ञानप्रतिपादनम् । _ 'माया को मूल कारण समझें-इस वाक्य में माया-शब्द का अर्थ 'विचित्र पदार्थों की सृष्टि करनेवाली त्रिगुणात्मिका प्रकृति' है, न कि अनिर्वचनीय (भावरूप ) अज्ञान । विष्णुपुराण के निम्नलिखित श्लोक में ] विचित्र वस्तुओं की सृष्टि में समर्थ तथा पारमाथिक ( वास्तविक-Real ), असुर के अस्त्र-विशेष का ही बोध माया शब्द से होता है'बालक ( प्रह्लाद ) के शरीर की रक्षा करते हुए, उस आशुगामी [ विष्णु के चक्र ] ने शम्बर नामक राक्षक की हजारों मायाओं को एक-एक खण्ड करके नष्ट कर दिया (वि० पु० १।१९।२० ) । इसलिए अति-प्रमाण से कभी भी अनिर्वचनीय अज्ञान का. प्रतिपादन नहीं होता। १. इस वाक्य का मायावेदान्ती लोग अर्थ करते हैं कि अनृत संसार का मूलकारण माया-नामक भावरूप अज्ञान है, उसी से शब्दादि विषयों द्वारा कामनाओं की उत्पत्ति होने से लोग अपने वास्तविक रूप से हटा दिये जाते हैं।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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