SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 244
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०७ रामानुज-दर्शनम् यतः = वे सर्वेश्वर, जो सभी त्याज्य गुणों के विरोधी रूप में रहते हैं, जो सत्यसंकल्प ( Firm resolution ) आदि अनन्त अतिशयों से युक्त हैं, असंख्य कल्याणकारी गुणों के भाण्डार हैं सर्वज्ञ हैं, तथा सर्वशक्तिमान हैं, उन पुरुषोत्तम से, सृष्टि, स्थिति तथा प्रलयये सभी प्रवृत्त होते हैं। विशेष-बहुव्रीहि समास के स्वपदार्थ को लेकर दो भेद हैं-तद्गुणसंविज्ञान और अतद्गुणसंविज्ञान । जब समास में स्थित पदों के अर्थों का ( तद्गुणानां) सम्बन्ध कार्य ( क्रिया ) से हो तब उसे तद्गुणसंविज्ञान कहते हैं, जैसे-लम्बकर्णमानय । यहाँ 'आनय' ( लाओ) क्रिया से 'लम्ब' और 'कर्ण' दोनों के अर्थों का सम्बन्ध है-लम्बे कानवाले पशु को लाना है; पशु के साथ ये दोनों भी आते हैं। दूसरी ओर, 'दृष्टसागरमान्य' में 'आनय' का सम्बन्ध टाट और सागर के साथ नहीं है । जब पुरुष को लाया जायगा, तब सागर और दृष्ट शब्दों के अर्थ नहीं होंगे। यह अतद्गुणसंविज्ञान बहुव्रीहि ( Bahuvrihi of separable attribute ) है । कभी-कभी तद्गुणसंविज्ञान शब्द की व्याख्या इस प्रकार होती है-तत् = विशेष्य, गुण = विशेषण, सम् = एक करना । जिस बहुव्रीहि में विशेष्य और विशेषण को एक क्रिया से सम्बद्ध जाना जाय, वह तद्गुणसंविज्ञान है । लम्ब और कर्ण शब्द 'पशु' के विशेषण हैं, पशु विशेष्य है। अतः पशु को लाने के साथ इनके विशेषणों को भी लाना अभीष्ट होता है, लम्ब और कर्ण को पृथक् करके पशु नहीं लाया जा सकता । लेकिन पुरुष को लाते समय 'सागर' नहीं आता और न आता है । दृष्ट शब्द का अर्थ-ये विशेषण विशेष्य से पृथक् हो गये । 'जन्म आदि यस्य तत्' में भी तद्गुणसंविज्ञान ( Inseparable attribute ) है, क्योंकि ब्रह्म के कार्यों में सबों का ग्रहण हो जाता है, जन्म और आदि दोनों का । जगत् के दो विशेषण दिये गये हैं-एक में अचित् का विश्लेषण है दूसरे में चित् का । अचिदंश के विषय में सोचना भी कठिन है कि वह कितने प्रकार का है और कितना विचित्र है। वह जीव की कृति नहीं है कि उसके विषय में कुछ सोच-विचार कर सकें, यह तो ईश्वर की अचिन्त्यशक्ति का मूर्तरूप है। दूसरी ओर चिदंश है जिसमें फलभोग का सर्वसाधारण नियम सभी जीवों में लगा हुआ है चाहे वह ब्रह्म हो या तुच्छ तृणखण्ड हो, उसे किसी विशिष्ट काल और देश में फल भोगना ही पड़ता है। इस प्रकार, ब्रह्म वह है जिससे संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होती है । ( २३. तृतीय सूत्र-ब्रह्म के विषय में प्रमाण ) इत्थंभूते ब्रह्मणि किं प्रमाणमिति जिज्ञासायां शास्त्रमेव प्रमाणमित्युक्तम्-'शास्त्रयोनित्वात्' (७० सू० १।१।३ ) इति। शास्त्रं योनिः कारणं प्रमाणं यस्य तस्य तच्छास्त्रयोनि । तस्यभावः तत्त्वं तस्मात् । ब्रह्मज्ञानकारणत्वाच्छास्त्रस्य तद्योनित्वं ब्रह्मणः इत्यर्थः।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy