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बौद्ध-दर्शनम्
शन्वं जगत् क्षणिकमात्रमयाप्तदुःखं स्वस्यैव लक्षणमयं तनुते स्वभावम् ।। दुःखादितत्त्वमखिलं च दिदेश देशे बुद्धाय शिष्यसहिताय नमोऽस्तु तस्मै ॥-ऋषिः
( १. चार्वाक-मत का खण्डन-ज्याप्ति की सुगमता ) अत्र बौद्धैरभिधीयते यदभ्यधायि, 'अविनाभावो दुर्बोध इति' तदसाधीयः। तादात्म्यतदुत्पत्तिभ्यामविनाभावस्य सुज्ञानत्वात् । तदुक्तम्
१. कार्यकारणभावाद्वा स्वभावाद्वा नियामकात् । अविनाभावनियमोऽदर्शनान न दर्शनात् ॥
(प्र० वा० ११३३ ) । इति । ___ इस ( व्याप्ति ) के विषय में बौद्ध लोग कहते हैं-[ चार्वाकों ने ] जो यह कहा है कि अविनाभाव अर्थात् व्याप्ति का ज्ञान नहीं हो सकता, वह ठीक (सिद्ध, तर्कसम्मत ) नहीं । व्याप्ति का ज्ञान तो तादात्म्य ( दो वस्तुओं की एकरूपता ) तथा तदुत्पत्ति ( कार्यकारण का सम्बन्ध ) से आसानी से हो सकता है। यही कहा भी है-'कार्य-कारण के सम्बन्ध से अथवा नियम रखनेवाले (= साध्य-साधन का अव्यभिचार-साक्षात्सम्बन्धसिद्ध करनेवाले ) स्वभाव के द्वारा अविनाभाव ( व्याप्ति ) का निर्णय होता है, अदर्शन ( व्यतिरेक-एक के न होने पर दूसरे का न होना ) या दर्शन ( अन्वय-एक के होने पर दूसरे का होना ) से नहीं।' [प्रमाण-वार्तिक में व्याप्तिचिन्ता-परिच्छेद ( १९३३ ) में या न्यायबिन्दु में भी यह श्लोक मिलता है। दोनों ग्रन्थ धर्मकीर्ति के हैं ] !
विशेष-अविनाभाव व्याप्ति का ही दूसरा नाम है । इसकी व्याख्या प्रमाणवार्तिक की स्ववृत्ति में इस प्रकार है-'कार्यस्य स्वभावस्य च लिङ्गस्याविनाभावः = साध्यधर्म विना न भवतीत्यर्थः' (पृ० ८७ ) अर्थात् अविनाभाव = कार्य ( तदुत्पत्ति ) और स्वभाव ( तादात्म्य ) रूपी लिङ्ग का साध्य के बिना न देखा जाना । उपर्युक्त श्लोक में धर्मकीति ने बौद्धों के अविनाभाव का निर्णय करनेवाली दो विधियों ( तादात्म्य और तदुत्पत्ति) का तो प्रतिपादन किया ही है, साथ-साथ नैयायिकों की व्याप्ति का निश्रय करनेवाली अन्वय और व्यतिरेक-विधियों का खण्डन भी कर दिया है। जो वस्तु किसी दूसरी वस्तु की आत्मा ( आत्मरूप ) ही है वह उसके बिना कैसे हो सकती है? इसलिए है, तादात्म्य अर्थात् नियामक स्वभाव को अविनाभाव का कारण बतलाया गया जैसे-शिंशपा और वृक्ष में तादात्म्य है, शिशपा वृक्षत्व से पृथक् नहीं जा सकता। कार्य तो कारण के अधीन रहता है, कारण के बिना वह सम्भव नहीं-अतः इससे भी ( दोनों विधियों मे) अविनाभाव का निश्चय होता है। इसे आगे स्पष्ट किया गया है।