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सर्वदर्शनसंग्रहे
____ गुरुमतवाले तो ऐसा ( अज्ञान को भावरूप न मानकर, ज्ञानाभाव का विषय मानना ) मान ही नहीं सकते । उन्हीं का कथन है—'अपने रूप ( सत् के रूप में ) तथा दूसरे के रूप ( असत् के रूप में ) की सहायता से, नित्य-रूप से, सत् और असत् दोनों में विद्यमान वस्तु में, कोई व्यक्ति, एक समय में, किसी एक ही रूप को जान सकता है।' [ वस्तुओं में सदा दो रूप होते हैं, स्वकीय रूप से वस्तु सदात्मक है और परकीय रूप से वह असदात्मक है । कभी वस्तु को हम सत् के रूप में ( Existent ) जानते हैं, कभी असत् के रूप में । जब सत् के रूप में कोई गुण जाना जाता है, उस समय उससे भिन्न या परकीय गुण असत् रहेंगे ही। आम के फल में रूप, रस आदि सभी हैं-कभी रूप को जानते हैं, उस समय गग का ज्ञान नहीं इत्यादि । अतः सत् रूप में ज्ञान के समय भी असत् रहता है असत् के ज्ञान के समय में भी सत् है; परन्तु यह प्रकृति का नियम है कि व्यक्ति एक समय में किसी एक को ही जान सकता है यद्यपि दूसरा रूप भी दूसरे समय में यथावत् जाना जा सकता है । अत: सत् और असत् में कोई अन्तर नहीं। ]
'अभाव एक प्रकार का दूसरा भाव ( Entity ) है जो किसी-न-किसी व्यपेक्षा ( सम्बन्ध, असत् के निरूपण की इच्छा ) से प्रकट किया जाता है। एक अन्य भाव ( भाव का विशेष भेद ) के अतिरिक्त अभाव नामक कोई पदार्थ नहीं है क्योंकि उसका निरूपण नहीं हो सकता।' [ पृथ्वी में घट का अत्यन्ताभाव पृथ्वी का स्वरूपमात्र है ( Positive ), घट का प्राग्भाव मिट्टी है, ध्वंसाभाव खपड़ा है, अन्योन्याभाव पटादि है-इस प्रकार घट के चारों अभाव ( अत्यन्ताभाव, प्राग्भाव, प्रध्वंसाभाव; और अन्योन्याभाव ) किसी-न-किसी भाव ( Positive entity ) के ही रूप में हैं, अत: अभाव भाव ही का दूसरा नाम है जो असत् पदार्थ की अभिव्यक्ति के लिए प्रयुक्त होता है । ] यह कहकर प्रभाकर के मतानुयायी भाव के अतिरिक्त अभाव पदार्थ को स्वीकार ही नहीं करते [कि अज्ञान को ज्ञानाभावविषयक मानें ।]
विशेष-यहाँ पर शङ्कर वेदान्त द्वारा पूर्वपक्ष की स्थापना हो रही है। तथ्य यही है कि शङ्कर अज्ञान को भावरूप मानते हैं, इसके लिए मीमांसकों से भी वे यह स्वीकार करवा लेते हैं कि अभाव भावरूप है अर्थात् अज्ञान = ज्ञानाभाव = ज्ञानभाव = भावरूप ( Positive ignorance)। अपने अज्ञान को ज्ञानाभाव कहना वे किसी मूल्य पर भी स्वीकार नहीं करते । यही अज्ञान सारे मायाजाल को सृष्टि करता है, यदि ज्ञानाभाव इसे मान लेंगे नो इसकी विश्वसृजनशक्ति विनष्ट हो जायगी। रामानुज आगे चलकर इस अज्ञान या माया का खण्डन करेंगे। उपर्युन- पद्यों में प्रभाकर का उद्धरण देकर उनसे अज्ञान को प्रकारानर से भावात्मक स्वीकार कराया जा रहा है। प्रभाकर भाव का ही एक दूसरा रूप अभाव मानते हैं, उसमे एक नहीं। तो एक तरह से उन्होंने शङ्कर को स्थिति ही स्वीकार कर ली।