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३ आर्हत-दर्शनम्
जीवादितत्त्वनिचयं समुपादिशधो
ज्ञानप्रपश्वमखिलं सरलं तथैव ।
संदिश्य दर्शनमथापि चरित्रमेवं
जैनो भवेत्पथि निदर्शक एष वीरः ॥ ऋषिः ( १. क्षणिक - भावना का खण्डन )
तदित्थं मुक्तकच्छानां मतमसहमाना विवसनाः कथंचित्स्थायित्वमास्थाय क्षणिकत्वपक्षं प्रतिक्षिपन्ति । यद्यात्मा कश्चिन्नास्थीयेत स्थायी, तहलौकिकपारलौकिक फलसाधनसम्पादनं विफलं भवेत् ।
काँछ ( पिछुआ, धोती के अगले भाग की छोर, कच्छ ) को खुला रखनेवाले ( = बौद्ध ) लोगों के इस क्षणिकत्व - मत को वस्त्र -हीन ( जैन ) लोग सहन नहीं कर पाते तथा किसी प्रकार [ सत्ता का ] स्थायित्व स्वीकार करके क्षणिकत्व - मत का खण्डन करते हैं । यदि कोई स्थायी आत्मा नहीं मानी जाय तो इहलोक ( संसार ) और परलोक - दोनों की फलप्राप्ति के साधनों ( व्रत, उपवास, दान, पुण्य आदि ) का सम्पादन व्यर्थ हो
जायगा ।
विशेष - - माधवाचार्य बौद्धों और जैनों के साथ व्यंग्य करते हैं । बौद्ध लोग काँछ नहीं बाँधते तो जैन लोग उनके भी चाचा हैं कि वस्त्र ही नहीं पहनते । स्पष्टतः यह संकेत दिगम्बर जैनियों पर है । आश्चर्य है कि कांछ न बांधनेवाले के मत को वस्त्रहीन लोग दोषपूर्ण मानें, पर यही तो संसार का नियम है। जैनियों की आपत्ति है कि यदि सभी पदार्थ क्षण-क्षण बदलते जा रहे हैं तब सभी कर्म बदल जायेंगे । काम करनेवाले फल पाने के समय नहीं रहेंगे । काम करे दूसरा, फल मिले दूसरे को । कोई काम करने की जरूरत ही फिर क्या है ? इसे ही बाद में स्पष्ट करेंगे ।
न ह्येतत्सम्भवत्यन्यः करोत्यन्यो भुङ्क्त इति । तस्माद्योऽहं प्राक् कर्म अकरवं सोऽहं सम्प्रति तत्फलं भुञ्ज इति पूर्वापरकालानुयायिनः स्थायिनस्तस्य स्पष्टप्रमाणावसिततया पूर्वापरभागविकलकालकलावस्थितिलक्षणक्षणिकता परीक्षकैरर्हद्भिर्न परिग्रहाह ।
यह कभी संभव नहीं है कि एक व्यक्ति काम करे और दूसरा उसका फल ले ले । इसलिए, 'जिस व्यक्ति ने ( मैंने ) पहले काम किया था, वही व्यक्ति ( मैं ) इस समय