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________________ प्रत्यभिज्ञा-पर्शनम् २९९ इसीलिए ये लोग किसी दूसरे मत की खोज में हैं। ये घोषणा करते हैं कि परमेश्वर की इच्छामात्र से संसार का निर्माण होता है। अपने संवेदन ( अनुभव ) के द्वारा अनुमान करने से ( उपपत्ति = अनुमान ) और शैवागमों से सिद्ध होनेवाली, प्रत्यक् ( सबों के ऊपर Transcendent ) आत्मा के साथ तादात्म्य (एकरूपता Identity ) होने पर नाना प्रकार के मान ( ज्ञान Cognitions ) और मेय (ज्ञेय Knowable ) आदि के भेदों और अभेदों को धारण करनेवाला परमेश्वर ही है; वह ऐसी स्वतन्त्रता धारण करता है जिसमें किसी दूसरे को मुखापेक्षिता ( हस्तक्षेप, आवश्यकता ) नहीं रहती; वह अपनी आत्मा पर आकाशादि भावों को उसी प्रकार अवभासित ( व्यक्त) करता है जिस प्रकार किसी दर्पण पर प्रतिबिम्ब ( परछाई ) पड़ता है-इन लोगों का यही मत है। [ आशय यह है-जिस प्रकार दर्पण पर प्रतिबिम्ब पड़ता है उसी प्रकार परमेश्वर अपने ही स्वरूप __ में सृष्टि, स्थिति, संहार आदि संसार की सभी क्रियाओं को व्यक्त करता है, क्योंकि चेतन अचेतन सभी पदार्थ परमेश्वर के अन्तर्गत ही हैं, कोई उससे पृथक् नहीं- यही अद्वैत तत्त्व है। किन्तु यहाँ माया न मानकर सब पदार्थों का ईश्वर में अवभास मानते हैं, इसीलिए यह दर्शन वस्तुवादी प्रत्ययवाद या Realistic Idealism कहलाता है। अब परमेश्वर ___ के अन्तर्गत देखें-वहाँ विद्यमान पदार्थों में भेद और अभेद दोनों हैं। वस्तुओं में पारस्प रिक भेद है, संसार में नाना प्रकार के ज्ञेय पदार्थ हैं जिसके ज्ञान भी पृथक्-पृथक् होते हैं, किन्तु यह संसार परमेश्वर से थोड़ा भी भिन्न नहीं है। वृक्ष एक है, शाखाएं भिन्न-भिन्न हैं—वैसे ही ईश्वर में भी भेद और अभेद दोनों हैं। यह परमेश्वर प्रत्यमात्मा के साथ तादात्म्य रखता है पर इसे जानते कैसे हैं ? या तो अनुमान से या शैवागमों के बल पर । 'मैं ही ईश्वर हूँ दूसरा कोई नहीं' इसे ही प्रत्यभिज्ञा कहते हैं क्योंकि यहाँ साक्षात्कार होता है-जीव और ईश्वर का तादात्म्य स्थिर होता है। यही स्वानुभाव ('मैं ईश्वर हूँ') अनुमान का आधार है। ईश्वर की स्वतन्त्रता भी मानी जाती है, वह अपनी इच्छा से ही संसार को बना और मिटा सकता है। ] ____बाह्य-चर्या ( भस्मस्नानादि ), आभ्यन्तर-चर्या (क्राथनादि), प्राणायाम आदि क्लेशप्रद प्रयासों से दूर रहकर, अब लोगों के लिए सुलभ, बिल्कुल नवीन, प्रत्यभिज्ञा मात्र को ही परसिद्धि ( मुक्ति) और अपरसिद्धि ( अभ्युदय, स्वर्गप्राप्ति आदि ) मानते हुए ये महेश्वरसिद्धान्तवाले प्रत्यभिज्ञाशास्त्र का अभ्यास करते हैं । १. अतोऽसौ परमेशानः स्वात्मव्योमन्यनर्गलः । इयतः सृष्टिसंहाराडम्बरस्य प्रकाशकः ॥ निर्मले मुकुरे यद्वद् भान्ति भूमिजलादयः । अमिश्रास्तद्वदेकस्मिंश्चिन्नाथे विश्ववृत्तयः ॥ तन्त्रालोक ( २।३-४ )।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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