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________________ शांकर-दर्शनम् ७५५ यदपि तार्क्ष्यध्यानादिना विषादि सत्यं विनश्यतीति । तन्न श्लिष्यते । तत्रापि मन्त्रप्रयोगादिक्रियाया एव विषाद्यपनोदकत्वात् । ध्यानस्य प्रमात्वाभावाच्च । ऊपर पूर्वपक्षी ने जो यह कहा था कि विषयों में दोष देख लेने पर राग नष्ट हो जाते हैं, वहाँ तात्पर्य यह है कि विषयों में दोष देख लेने से उनके ( विषयों के ) विरोधी एक ऐसे वैराग्य की उत्पत्ति होती है जिसका नाम अनभिरति ( Detachment ) है । उसके बाद राग की निवृत्ति हो जाती है । अतः व्यभिचार का प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि वास्तव में राग केवल दृष्टिगोचर नहीं होता है, [ और कोई बात नहीं है । ] उन लोगों ने फिर कहा है कि ता ( गरुड़ ) के ध्यान आदि से सचमुच का विष उतर जाता है । यह बात ठीक नहीं जंचती । यहाँ भी मन्त्र- प्रयोग आदि क्रियाएं ही विष का हरण करती हैं । दूसरी बात यह है कि ध्यान यथार्थ अनुभव का रूप ले नहीं सकता । [ पूर्वपक्षियों का कहना है कि ज्ञान विशेष जो यथार्थ अनुभव के रूप में है वही सत्य वस्तु का विनाशक है । अब उसमें गरुड़ के ध्यान से विषनाश का उदाहरण देना युक्तिसंगत नहीं है । ध्यान का अर्थ है अविच्छिन्न स्मृति का प्रवाह । उसमें अनुभव तो है नहीं यथार्थ अनुभव तो दूर की बात है । ] यदवादि -- औपाधिकस्य जीवभावस्योपाधिनिवृत्त्यानिवृत्तौ ब्रह्मभावोपपत्तेर्न तदर्थमर्थवैतथ्यकथनमिति । तदपि काशकुशावलम्बनकल्पम् । विकल्पासहत्वात् । किमुपाधेः सत्यत्वमभिप्रेत्य मिथ्यात्वं वा ? न प्रथमः । प्रमाणाभावात् । नापरः । इष्टापत्तेः । तस्मादाविद्यको भेद इति श्रुतावद्वितीयत्वोपपत्तयेऽभिधीयते, न तु व्यसनितया । पूर्वपक्षी ने यह भी कहा था कि जीवत्व उपाधियुक्त है, जब उपाधियों की निवृत्ति हो जाती है तो उस निवृत्ति के बाद ब्रह्मत्व की सिद्धि हो ही जायगी । उसके लिए (ब्रह्मत्वसिद्धि के लिए ) अर्थों ( ज्ञातृत्वादि प्रपञ्च, Objects ) को मिथ्या बनाने की क्या आवश्यकता है ? 1 यह शंका भी [ डूबते हुए व्यक्ति की ] काश या कुश घास के सहारे पार हो जाने की आशा मात्र ही है । कारण यह है कि निम्नलिखित विकल्पों को यह सह नहीं सकता । क्या उपाधियों को सत्य मानते हुए आप युक्ति दे रहे हैं या मिथ्या मानते हुए ? उपाधियों को सत्य मानकर युक्ति नहीं दे सकते, क्योंकि इसके लिए कोई प्रमाण हो नहीं है । उन्हें मिथ्या मानकर भी नहीं चल सकते, क्योंकि उसमें तो हमारे पक्ष की पुष्टि होगी । इसलिए हमलोग जो भेद को अविद्या-कलित मान रहे हैं वह इसलिए कि श्रुति ( सदेव .......एकमेवाद्वितीयम्, छां० ६।२1१ ) में प्रतिपादित अद्वैत तत्त्व की सिद्धि हो । यह न समझिये कि हमलोगों को [ अद्वैतवाद का ] व्यसन ( धुन, Prejudice ) लगा हुआ है ।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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