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सर्वदर्शनसंग्रहे
रहते हैं. तब तो अतिशय का होना ही व्यर्थ है इसलिए सहकारी जलादि का मिलना भी व्यर्थ है । यदि दूसरी अवस्था में पहुँच जाते हैं तब तो 'क्षणिक' की ही सिद्धि हो जाती है—एक अवस्था से दूसरी अवस्था में आना ही सिद्ध करता है कि पहली अवस्था क्षणिक है ..पूरी सत्ता ही क्षणिक है।
(१३. अक्षणिक पदार्थ का 'अक्रम' से अर्थक्रियाकारी नहीं होना ) नाप्यक्रमेण घटते। विकल्पासहत्वात् । तथाहि--युगपत्सकलकार्यकरणसमर्थः स्वभावस्तदुत्तरकालमनुवर्तते न वा? प्रथमे तत्कालवत्कालान्तरेऽपि तावत्कार्यकरणमापतेत् । द्वितीये स्थायित्ववृत्त्याशा मूषिकभक्षितबीजादौ अकुरादिजननप्रार्थनामनुहरेत् । ___अक्रम ( एक साथ उत्पन्न होना ) के नियम से भी [ अक्षणिक पदार्थ का अर्थक्रियाकारी होना ] सिद्ध नहीं होता । कारण यह है कि विकल्पों को यह सह नहीं सकता (=दो विकल्पों के खण्डन से इस वाक्य का भी खण्डन हो जाता है। वह इस प्रकार होता हैएक ही साथ सभी काम करने में समर्थ स्वभाव कार्य की उत्पत्ति के बाद भी रहता है या नहीं (= या एक साथ कार्य उत्पन्न करके रह जाता है ) ? यदि पहले विकल्प को लेते हैं तो स्वभाव एक काल में जितना काम करता है उतना ही दूसरे काल में भी करने लगेगा [ क्योंकि कार्य की उत्पत्ति के बाद भी स्वभाव तो बदलेगा ही नहीं, दूसरे काल में उसकी सत्ता रहेगी ही और वह उसी परिमाण में निरन्तर--कालान्तर में भीकार्य उत्पन्न करता रहेगा। लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि कार्योत्पत्ति केवल एक बार होती है, उसी स्वभाव से पुनः पुनः कार्योत्पत्ति, एक ही परिमाण में नहीं होती । यही तो सत्ता को स्थायी मानने का परिणाम है । इसलिए अक्रम-नियम (Method of Simultaneity) के प्रथम विकल्प से अक्षणिक सत्ता का खण्डन हो जाता है क्योंकि इसमें कठिनाई (Absurdity ) उत्पन्न हो जाती है ] । ___ यदि दूसरे विकल्प ( स्वभाव एक साथ कार्योत्पत्ति करके निवृत्त हो जाता है ) को लेते हैं तो स्वभाव के स्थायी होने की आशा उतनी ही सफल होगी जितनी चूहे के खाये हुए बीजादि में अंकुरादि उत्पन्न होने की प्रार्थना । ( अर्थात् जिस प्रकार चूहे के खाये हए बीज नहीं उग सकते उसी प्रकार यह मानकर कि स्वभाव कार्योत्पत्ति करके निवृत्त हो जाता है, स्वभाव का स्थायित्व स्वीकार नहीं कर सकते । जन कोई भाव अपना कार्य करके समाप्त हो जाय जो इसका अभिप्राय है कि वह क्षणिक है । इस दृष्टिकोण से भी बौद्धों के मत-णिकवाद-की पुष्टि होती है। इसके लिए अभी प्रयोग दिये जायेंगे कि बीजादि भाव क्षण-क्षण में भिन्न होते हैं क्योंकि उनसे क्षण-क्षण में विरुद्ध धर्म आतेजाते हैं । इत्यादि........ )।
१. स० द० सं० की कुछ प्रतियों में स्वभावः के स्थान में स भावः पाठ है लेकिन वह ठीक नहीं । भाव नहीं रहने से ही विरुद्ध धर्म पर आरोपित आश्रय की विभिन्नतारूपी साधन अनुपयोगी हो सकता है ।