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सर्वदर्शनसंग्रहे
कार्य के करने की सामर्थ्य होती है, कर्म के पुद्गलों की अपनो शक्ति, जिससे बन्धन रहे । ( ४ ) प्रदेशबन्ध ( Bondage of Entrance ) पुद्गल के द्वयणुकादि अनेक अवयववाले स्कन्धों का अपने अवयव में प्रवेश करने से प्रदेशबन्ध होता है । इस प्रकार बन्ध की विचित्र मीमांसा इन लोगों ने की है। कर्म के पुद्गलों का आम्रव ( Influx) जब रुक जाय तो उसे संवर कहते हैं । इसे ही अब व्यक्त किया जाता है। ( २३. संवर और निर्जरा नामक तत्त्व )
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आनवनिरोधः संवरः । येनात्मनि प्रविशत्कर्म प्रतिषिध्यते स गुप्तिसमित्यादिः संवरः । संचारकारणयोगादात्मनो गोपनं गुप्तिः । सा त्रिविधा - कायवाङ्मनोनिग्रहभेदात् । प्राणिपीडापरिहारेण सम्यगयनं समितिः । सेर्याभाषादिभिः पश्वधा । प्रपश्वितं च हेमचन्द्राचार्यै:३२. लोकातिवाहिते मार्गे चुम्बिते भास्वदंशुभिः । जन्तुरक्षार्थमालोक्य गतिरोर्या मता सताम् ॥ ३३. अनवद्यमृतं सर्वजनीनं मितभाषणम् ।
प्रिया वाचंयमानां सा भाषासमितिरुच्यते ॥
आस्रव ( आत्मा का चलना, योग, influx ) का निरोध हो जाना ( कर्म पुद्गलों का आत्मा में प्रविष्ट न होना) संवर है। जिससे आत्मा में घुसनेवाला कर्म रुक जाय वह गुप्ति, समिति आदि से युक्त संवर नाम का तत्व है ।
[ आत्मा में कर्मपुद्गलों के ] संचार अर्थात् प्रवेश का कारण जो योग ( आस्रव ) है उससे आत्मा की रक्षा करना ( गोपन ) गुप्ति ( Protection ) है। इसके तीन भेद हैं— काय गुप्ति, वाक्-गुप्ति तथा मनो-गुप्ति ( निग्रह = बचना, गुप्ति ) । प्राणियों की पीड़ा से अपने को बचाते हुए अच्छी तरह व्यवहार करना समिति ( Right conduct ) है । ईर्या, भाषा आदि इसके पाँच भेद हैं ।
आचार्य हेमचन्द्र ने इसकी व्याख्या की है -- ' जिस मार्ग पर लोग खूब चलते हों (जिससे बहुत कम जीव-जन्तु उस पर हों ), सूर्य की किरणों से चुम्बित हो, उस पर जन्तुओं की रक्षा के लिए देख-भाल कर चलना, सज्जनों के लिए 'ईर्यासमिति' है ( ३२ ) । अनिन्द्य, सत्य, सभी जनों के लिए हितकर तथा मित भाषण करना, जो वचन के संयमी व्यक्तियों को प्रिय लगे, वह 'भाषासमिति' कहलाती है ( ३३ ) ।'
१. 'अनवद्यमृतं' के स्थान पर 'अपद्यतां गतम्' पाठ है । पद्य = पादवेधक > वेधक । इसलिए 'अपद्यतां गतम्' का अर्थ है 'अवेधकम् वेधाजनकम्' जो किसी को कष्ट न दे । अथवा, 'अप' का अर्थ है गद्य । 'गद्यतां गतम्' अर्थात् गद्य के रूप में, पद्य के रूप में नहीं, क्योंकि गद्य के बोलने और समझने में शीघ्रता होती है । पद्य में वह सुकरता नहीं है। कॉवेल ने दूसरा ही पाठ 'आपद्य ेत' लिया है जिससे विधिलिङ् का अर्थ लिया है ।