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आहेत-दर्शनम्
१४१ मिठास रहती है ), उसी प्रकार मूल प्रकृतियों (प्रकृतिबन्धों ) में प्रथम तीन ज्ञानवरणादि तथा अन्तराय ( कुल मिलाकर चार कर्मों ) का इस सूत्र के अनुसार-'उत्कृष्ट स्थिति ( = बन्ध ) का परिणाम करोड़ों-करोड़ों तीस सागरोपम-जैसे काल हैं' -इतने समय तक मतवाले ( हाथी ) की तरह अपने स्वभाव को न छोड़ना "स्थितिबन्ध' है। [ स्थिति दो प्रकार की है--परा और अपरा । परा स्थिति उत्कृष्ट होती है तथा आठों कर्मों में प्रत्येक की भिन्न-भिन्न होती है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय तथा अन्तराय कर्मों की परा स्थिति तीस सागरोपम-जैसे करोड़ों समय तक होती है = उतने समय तक इनका अपना स्वभाव ( प्रकृति ) नहीं छूटता। 'सागरोपम' एक समय की अवधि है जो बहुत बड़ी है। अन्य कर्मों की परा स्थिति अलग-अलग होती है, जैसे-मोहनीय कर्म की स्थिति सत्तर सागरोपम जैसे करोड़ों करोडों काल (त० स० ८।१५), नाम और गोत्र कर्मों की बीस सागरोपम-जैसे करोड़ों-करोड़ों काल (१६), आयु कर्म की तेंतीस सागरोपम (८१७), अपरा स्थिति का वर्णन भी सूत्रकार ने ८।१८ से आरम्भ किया है जैसे-वेदनीय कर्म की अपरा स्थिति बारह मुहर्त तक है इत्यादि । संक्षेप में स्थिति का अर्थ है ठहरना, अपने स्वभाव को न छोड़ना । वह काल जैनों के अनुसार चाहे जितना सागरोपम भी हो। जैसे दुर्दान्त ( मतवाला ) हाथी कुछ समय तक अपनी प्रकृति नहीं छोड़ता उसी प्रकार कर्म भी अपनी प्रकृति में स्थिर रहते हैं। ]
अनुभवबन्ध-जैसे बकरी, गाय, भैंस आदि के दूध में तीव्र, मन्द आदि स्वभाव के अनुसार अपने-अपने कार्य करने की विशेष सामर्थ्य की उत्पत्ति ( अनुभाव ) होती है उसी प्रकार कर्म पुद्गलों में अपने कार्य करने की विशेष सामर्थ्य उत्पन्न होती है । [ यही अनुभवबन्ध है।]
प्रदेशबन्ध-कर्म के रूप में परिणत पुद्गलों ( Matters.) के जो [ द्वयणुकादि ] स्कन्ध हैं, जिनके अनन्त स्थान हुआ करते हैं, उनका ( अनन्त अवयवोंवाले स्कन्धों का ) अपने अवयवों में प्रवेश कर जाना ही प्रदेशबन्ध है।
विशेष-कुछ दार्शनिकों के अनुसार जो सात तत्त्व होते हैं उनमें बन्ध ( Bondage) चौथा तत्त्व है। इसके बाद पांचवां तत्व संवर है जिसका वर्णन अब किया जायेगा। बन्ध चार प्रकार के हैं-(१) प्रकृतिबन्ध ( Natural Bondage) जिसमें आठ प्रकार के कर्म हैं । कर्मों से ही मनुष्य को जन्म लेना पड़ता है। जैनों की कर्ममीमांसा इतनी सुन्दर है कि कर्मों से ही ये गोत्र, नाम, आयु आदि भी मानते हैं। किसी विशेष प्रकार के कर्म से ही मनुष्य की आयु निश्चित होती है, दूसरे कर्म उसके गोत्र के निर्धारक होते हैं। कुछ कर्म ज्ञान को छिपा लेते हैं तो दूसरे कर्म मोह उत्पन्न करते हैं। (२) स्थितिबन्ध ( Bondage in Existence ) जिसमें कोई भी स्थिर रहता है । इसके दो भेद हैं-परा और अपरा । ( ३ ) अनुभवबन्ध ( Bondage in Capacity ) जिसमें किसी