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________________ शांकर-दर्शनम् ७५७ अपने स्वरूप को प्रतीति नहीं करती । उधर माया को प्रतीति भी माया के रूप में नहीं होती।] __ उसी प्रकार, जैसे शबर-आदि [ जंगली जातियों ] ने जिस राजकुमार को अपने बच्चों के साथ बचपन से ही पाला-पोसा है, वह राजकुमार अपने को भी उसी जाति का समझने लगता है । किन्तु जब उसके साथ उसे बोध कराते हैं कि जो इस तरह के [ लक्षण ] राजा में हैं वह तुम ही हो ( = राजा के लक्षणों से युक्त तुम राजकुमार हो), तो अपने रूप ( Status ) का बोध हो जाने से वह वस्तुस्थिति समझ जाता है ( अपने रूप को पा लेता है)। उसी तरह वेश्या-स्वरूप अनादि अविद्या के द्वारा जो आत्मा दसरे स्वभाव में ले जाई गई है वह ( आत्मा ) माता के तुल्य 'तत्त्वमसि' आदि श्रुति के द्वारा फिर से अपने स्वभाव में पहुंचा दी जाती है। एतदाहुस्त्रविद्यवृद्धाः५७. नी चानां वसतौ तदीयतनयः सार्धं चिरं वधित स्तज्जातीयमवैति राजतनयः स्वात्मानमप्यञ्जसा । संवादे महादादिभिः सह वसँस्तद्भवेत्पूरुषः स्वात्मानं सुखदुःखजालकलितं मिथ्यैव धिमन्यते ॥ इमे तीनों वेदों के ज्ञान में पारंगत लोगों ने कहा है-नोचों के निवास-स्थान में, उन्हीं के पुत्रों के साथ बहुत दिनों तक पाला-पोसा गया राजकुमार ( Prince ) अपने को भी बहुत शीघ्रता से उन्हीं की जातिवाला व्यक्ति समझता है । उसो तरह लोगों की बोल-चाल में ( in common parlance ) महत्-आदि तत्त्वों के साथ रहनेवाला पुरुष ( जीवात्मा ) अपने को सुख-दुःख के समूह से घिरा हुआ मानता है, ऐसा कहते हैं । धिक्कार ! वह तो मिथ्या है ।। ५७ ॥ [ इसमें अविद्या का निरूपण किया गया है । ] ५८. दाता भोगकरः समग्रविभवो यः शासिता दुष्कृतां । राजा स त्वमसीति रक्षितृमुखाच्छ त्वा यथावत्स.तु । राजीभूय जयार्थमेव यतते तद्वत्पुमान्बोधितः श्रुत्या तत्त्वमसीत्यपास्य दुरितं ब्रह्मैव सम्पद्यते । आत्मसाक्षात्कार-'जो राजा दानी, भोग करनेवाला, सभी सम्पत्तियों से युक्त तथा दुष्कर्म करनेवालों को दण्ड देनेवाला होता है वह तुम ही हो' इस प्रकार अपने रक्षक के मुख से यथार्थ बातें सुनकर वह ( राजकुमार ) राजा बनकर विजय के लिए प्रयत्न करता है; ठीक इसी तरह वह पुरुष ( जीवात्मा ) भी 'तत्त्वमसि' ( छां० उ० ६।८७ ) आदि श्रुति के द्वारा अपने मिथ्याभाव ( दुरित ) को त्याग कर ब्रह्म ही बन जाता है ।। ५८ ॥ एतेनैतत्प्रत्युक्तं यदुक्तं परैः-'कि द्वयोस्तादात्म्यमेकस्य वा ? नाद्यः ।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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