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पातञ्च गम्
चित्त में कृत्य और अकृत्य का विचार नहीं रहता तथा यह क्रोधादि दुर्गुणों से भरा रहता है । राक्षसों और पिशाचों में प्रायः सदेव ऐसा चित्त रहता है । ]
जो चित्तं क्षिप्त से विशिष्ट हो उसे विक्षिप्त कहते हैं । [ इस चित्त में सत्त्वगुण का उद्रेक होता है तथा यह दुःख के साधनों को त्यागकर सुख के साधक विषयों- जैसे शब्द आदि में प्रवृत्त होता है । देवताओं में ऐसा चित्त सदा ही रहा करता है। यह चित्त किसी विशेष विषय के अनुसार कभी -कभी कुछ समय के लिए स्थिर भी हो जाता है । यों यह भी चञ्चल ही है । इसी विशेष का वर्णन अब गीता के प्रमाण से करेंगे तथा इसकी स्वाभाविक चंचलता का उल्लेख योगसूत्र के आधार पर ही करने जा रहे हैं । ]
विशेषो नाम
चश्वलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद् दृढम् ( गी० ६।३४ ) इति न्यायेनास्थिरस्यापि मनसः कदाचित्कसमुद्भूतविषयस्थैर्यसम्भवेन स्थैर्यम् । अस्थिरत्वं च स्वाभाविकं व्याध्याद्यनुशयजनितं वा । तदाह - 'व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्थाविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्ध भूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः ।' ( पात० यो० सू० १ ३० ) इति ।
[ ऊपर कहा गया है कि क्षिप्त से विक्षिप्त में विशेषता होती है । ] अब उस विशेषता का अर्थ है स्थिरता । 'हे कृष्ण ! मन बड़ा चञ्चल है, यह प्रमाथी ( शरीर और इन्द्रियों में क्षोभ उत्पन्न करनेवाला ) है, बलवान् ( जिसका निवारण अभिप्रेत विषय से किसी तरह भी न हो सके ) तथा दृढ़ ( विषय-वासनारूपी दुर्ग में रहने के कारण अभेद्य ) भी है ।' ( गी० ६।३४ ) इस नियम से, विषयों को कभी-कभी स्थिर करना सम्भव होने के कारण, मन को, अस्थिर होने पर भी, स्थिर किया जा सकता है । ( विक्षिप्त में यही विशेता है ) । मन की अस्थिरता या तो स्वाभाविक है या व्याधि-आदि अनुशयों ( अनुबन्धों, पूर्वकृत कर्मों के फलों से उत्पन्न होती है । इसे कहा है- ' व्याधि ( Sickness ), स्त्यान (Languor ), संशय ( Doubt ), प्रमाद ( Carelessness ), आलस्य ( Laziness ), अविरति ( Addiction to objects ), भ्रान्तिदर्शन ( Erroneous perception ), अलब्धभूमिकत्व ( Failure to attain some stage ) और अनवस्थितत्व ( Instability ), ये चित्त के विक्षेप ( अस्थिर बनानेवाले ) हैं अतः ये योग
अन्तराय ( बाधक ) हैं । ( यो० सू० १1३० ) । [ इन अन्तरायों का वर्णन अलगअलग भी कर रहे हैं । उसके साथ ही पूर्वपक्ष का उपसंहार किया जायगा । ]
तत्र दोषत्रय वैषम्यनिमित्तो ज्वरादिर्व्याधिः । चित्तस्याकर्मण्यत्वं स्त्यानम् । विरुद्धकोटिद्वयावगाहि ज्ञानं संशयः । समाधिसाधनानामभावनं विषयाभिलाषोशरीरवाक्चित्तगुरुत्वादप्रवृत्तिरालस्यम् । ऽविरतिः । अतस्मस्तद्बुद्धिर्भ्रान्तिदर्शनम् । कुतश्चिन्निमित्तात्समाधि
प्रमादः ।
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