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सर्वदर्शनसंग्रहे
विशेष-प्रमाणों के द्वारा उक्त पचीस तत्त्वों की सिद्धि करनी पड़ती है। उन तत्वोंमें प्रथम तत्त्व जो प्रधान या प्रकृति है उसकी सिद्धि के लिए अनुमान ही एक साधन है। उस विषय में किये गये अनुमान का उपजीव्य सत्कार्यवाद का सांख्योक्त सिद्धान्त ही हो सकता है। प्रकृति-तत्त्व के भीतर वे सारे विकार निहित हैं जिनकी उत्पत्ति प्रकृति से होती है, चाहे वह उत्पत्ति सीधे हो या परम्परा से हो। इस विषय में मतभेद प्रदर्शित करते हैं जिनके खण्डन के बाद अपने सत्कार्यवाद का पोषण करेंगे।
(१) बौद्धों का पक्ष है कि कारणवस्तु से कार्यवस्तु तभी उत्पन्न होती है जब कारणवस्तु असत् अर्थात् विनष्ट हो जाय । जब तक पूर्व वस्तु सत् या विद्यमान है तब तक कोई चीज उससे उत्पन्न ही नहीं हो सकती। बीज नाश होने पर ही अंकुर उत्पन्न होता है. मिट्टी का पिण्ड मिट जाने पर ही घट उत्पन्न होता है। बौद्ध लोग सभी भावात्मक ( Positive ) वस्तुओं को क्षणिक मानते हैं। कार्य के क्षण में कारण तथा कारण-क्षण में कार्य नहीं रहता । पूर्वक्षणिक वस्तु के विनाश के बाद ही उत्तरक्षणिक वस्तु आती है-अतः विनष्ट ( असत् ) कारण ही सत् ( विद्यमान ) कार्य को उत्पन्न करता है। सत् का यहां अर्थ है क्षणभर खड़ा रहना, तीनों कालों में अबाधित होना नहीं ।
(२) नेयायिक और वैशेषिक असत्कार्यवाद का सिद्धान्त मानते हैं। इनके अनुसार परमाणु आदि ( कारण) द्वयणुकादि कार्य पहले से विद्यमान नहीं ( असत् ) रहते हैं, उनसे ये सत् ( विद्यमान ) द्वयणुकादि कार्य बिल्कुल नवीन रूप में उत्पन्न होते हैं । मिट्टी में घट असत् है, नहीं तो दोनों का एक ही नाम होता या फिर दोनों पर्याय माने जाते। दोनों को हम अलग-अलग देखते हैं । बौद्धों के अनुसार जहाँ कारण-वस्तु ही अविद्यमान (विनष्ट ) होती है तब कार्योत्पत्ति होती है, न्याय के अनुसार कारण-वस्तु विद्यमान ही रहती है । हाँ, उसमें कार्य नवीन रहता है।
(३ ) अद्वैत-वेदान्त के अनुसार एकमात्र ब्रह्म ही सत् (विद्यमान ) है, जगत् के अन्य सभी रूप अज्ञानवश उसमें उसी प्रकार कल्पित या आरोपित हैं जैसे सीपी में चांदी या रस्सी में सांप । जिस प्रकार सीपी का वास्तविक ज्ञान हो जाने पर उसमें आरोपित चांदी की पूर्वप्रतीति मिथ्या या भ्रमपूर्ण लगती है, उसी प्रकार तत्त्वज्ञान के द्वारा माया का बन्धन ( आवरण ) हट जाने पर पारमर्थिक तत्त्व-ब्रह्म-में ज्ञानावस्था के पूर्व प्रतीत होनेवाला समस्त जगत भ्रान्त लगता है, असत् ( वस्तुतः मिथ्या, पारमर्थिक दृष्टि से असत् ) लगता है । फलतः कारण ( ब्रह्म) सत् है किन्तु कार्य ( जगत ) मूलकारण ब्रह्म का विवर्त ( मिथ्यात्मक रूपान्तर Illusory emanation) है, परिणाम ( वास्तविक रूपान्तर) नहीं। विवर्त होने के कारण इसकी ( कार्य की ) पारमार्थिक सत्ता नहीं, आभासिक या व्यावहारिक सत्ता ही है । न्याय में वस्तु का पारमार्थिक रूपान्तर मानते हैं, सांख्य के साथ भी यही बात है परन्तु वेदान्त में वस्तु का आभासिक रूपान्तर या विवर्त माना जाता है।