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________________ ( ४ ) उत्तरदायित्व ठीक से निबाह न सकेगा । मुझे हर्ष है कि रूपान्तरकार ने प्रथम स्तर पर इस वैज्ञानिक अथवा तटस्थ पद्धति का ग्रहण करके इस उत्तरदायित्व का पूरा निर्वाह करना चाहा है । सर्वदर्शनसंग्रह एक दार्शनिक कृति है, इसलिए रूपान्तरकार-जैसे मध्यस्थजो मूल लेखक और पाठक के बीच है- का कार्य केवल तटस्थतापूर्वक रूपान्तर प्रस्तुत कर देना मात्र ही पर्याप्त नहीं है । भारतीय दार्शनिक अपने विचारों को सहस्राब्द से चली आती हुई व्यवस्थित एवं पारिभाषिक पदावलियों में एक विशेष शैली से प्रस्तुत करते हैं, अतः उनके समस्त विचारों को आधुनिक पाठक के सामने हिन्दी भाषा में रखते समय अनेक प्रकार की सजगता आवश्यक है । पहली तो यह कि भाषा हिन्दी की प्रकृति की हो, दूसरी पुराने आचार्यों की बातों को जहाँ तक हो सके आधुनिक पाठक के अनुभव में उतार देने का प्रयास हो, तीसरी उसकी पारिभाषिकता का दुर्ग तोड़कर, उसमें प्रयुक्त संदर्भ-शब्दों की व्याख्या करते हुए, शास्त्रीय संकेतों का विस्तार देकर बात को सुलझा हुआ रूप दिये जाने का प्रयत्न हो । लेखक ने रूपान्तरण में यह प्रयत्न किया है कि रूपान्तर की भाषा की प्रकृति अधिक से अधिक हिन्दी की हो । शेष आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही तटस्थ रूपान्तर के अनन्तर 'विशेष' - शीर्षक से शास्त्रीय ग्रंथियों को भी स्पष्ट करने का प्रयास हुआ है। यही नहीं, रूपान्तर के मध्य में भी कहीं-कहीं लम्बे कोष्ठकों के अन्तर्गत आवश्यक स्पष्टीकरण हुआ है। ऐसे प्रयासों में कहीं-कहीं रूपान्तरकार की अनवधानता अवश्य दृष्टिगोचर होती है । उदाहरणार्थ पृष्ठ सं० १० पर मूल का रूपान्तर प्रस्तुत करते हुए यह कहा गया है- "व्याप्ति का अर्थ है दोनों प्रकार की ( शंकित और निश्चित ) उपाधियों से रहित [ पक्ष * और लिङ्ग का ] सम्बन्ध ।" यहाँ व्याप्ति को कोष्ठकान्तर्गत पक्ष और लिङ्ग का सम्बन्ध कहना सर्वथा विचारणीय है । स्वयं ही रूपान्तरकार ने अनेक स्थलों पर व्याप्य एवं व्यापक के सम्बन्ध को ही परम्परानुसार शास्त्रीय ढंग से व्याप्ति बतलाया है । * 'साध्य' के स्थान पर 'पक्ष' हो गया है ।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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