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पूर्णप्रज्ञ-दर्शनम्
तथा ।
१७. जीवेश्वरभिदा चैव जडेश्वरभिदा जीवभेदो मिथश्चैव जडजीवभिदा तथा ॥ १८. मिथश्च जडभेदो यः प्रपञ्चो भेदपञ्चकः । सोऽयं सत्योऽप्यनादिश्व सादिश्वेनाशमाप्नुयात् ॥ १९. न च नाशं प्रयात्येष न चासौ भ्रान्तिकल्पितः । कल्पितश्चेन्निवर्तेत न चासौ विनिवर्तते ॥ २०. द्वैतं न विद्यत इति तस्मादज्ञानिनां मतम् । मतं हि ज्ञानिनामेतन्मितं त्रातं हि विष्णुना ॥ तस्मान्मात्रमिति प्रोक्तं परमो हरिरेव तु । इत्यादि । तस्माद्विष्णोः सर्वोत्कर्ष एव तात्पर्यं सर्वागमानाम् ।
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इसीलिए परम श्रुति यही है--' जीव और ईश्वर में भेद है, जड़ और ईश्वर में भेद है, जीवों में परस्पर भेद है, जड़ और जीवों में भेद है, जड़ों में भी परस्पर भेद है - इस प्रकार संसार ( प्रपंच) में पाँच प्रकार के भेद हैं । यही भेद सच्चा है और अनादिकाल से चला आ रहा है । यदि इसका कहीं आरम्भ हुआ होता तो नष्ट भी हो जाता ।। १८ ।। किन्तु यह नष्ट ( समाप्त ) नहीं होता, यह भ्रान्ति से भी कल्पित नहीं है । यदि कल्पित होता तो इसकी समाप्ति भी हो सकती । लेकिन इसकी समाप्ति नहीं होती ॥ १९ ॥ इसलिए 'द्वैत को सत्ता नहीं है' ऐसा सिद्धान्त अज्ञानियों का है । ज्ञानियों का तो यह मत है कि इस प्रपंच की मिति ( मापा जाना ) तथा रक्षा विष्णु के द्वारा होती है इसलिए इसे 'मात्र' कहते हैं हरि ही सबसे ऊंचे हैं ।' इत्यादि ।
अतएव सभी आगमों का तात्पर्य यह है कि विष्णु ही सबसे ऊँचे हैं । ( ९. ईश्वर की सर्वोत्कृष्टता के अन्य प्रमाण ) एतदेवाभिसंधायाभिहितं भगवता -
२१. द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्वाक्षर एव च । क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥ २२. उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः । यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ॥ २३. यस्मात्क्षरम तीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः । अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ॥ २४. यो मामेवमसंमूढो जानाति पुरुषोत्तमम् । स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत । २५. इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ । एतद् बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत ।।
( गी० १५।१६ - २० ) इति ।