________________
६८०
सर्वदर्शनसंग्रहेइसी से वह [ पुत्रजन्म ही चैत्र के हर्ष का कारण-] इस परिशेष का निश्चय कर लेता है ।' (चित्सुखी, पृ० ८८)। ___यदुक्तं "सिद्धार्थपरेषु कार्याध्याहारः' इति तदयुक्तम् । मुख्यार्थविषयतया सिद्धेऽपि प्रयोगसिद्धावध्याहारानुपपत्तेः। यदुक्तं 'शास्त्रत्वप्रसिद्धया च न स्वरूपपरत्वम्' इति तदप्ययुक्तम् । हितशासनादपि शास्त्रत्वोपपत्तेः। न च प्रयोजनाभावः। श्रुतमतवेदान्तजन्याद्वितीयात्मविज्ञानाभ्यासेन संसारनिदानाविद्यानिवृत्त्युपलक्षितब्रह्मात्मतालक्षणपरमपुरुषार्थसिद्धिः।। ___ ऊपर आपने पूर्वपक्ष से यह जो कहा है कि सिद्ध अर्थ का प्रतिपादन करनेवाले वाक्यों में कार्य (विधिबोधक ) शब्द अध्याहार करें, तो यह समीचीन नहीं है । कारण यह है कि जो वाक्य सिद्ध अर्थ का प्रतिपादन करता है उसमें भी मुख्य अर्थ की वाचकता मानकर प्रयोग की सिद्धि की जा सकती है [ = सिद्ध वाक्य भी प्रयोग में मुख्यार्थ का बोध करा सकते हैं ], अत: अध्याहार उत्पन्न (Justified ) नहीं है। ___आपने फिर यह कहा है कि शास्त्र की प्रसिद्धि के दृष्टिकोण से [ ये वेदान्त वाक्य ] अपने स्वरूप या अर्थ का प्रतिपादन तक करने में असमर्थ हैं, यह भी असंगत है क्योंकि [ उक्त लक्षण के अतिरिक्त ] जो हित ( कल्याण ) का शासन ( प्रतिपादन ) करता है वह भी शास्त्र कहलाता है । इसलिए कल्याण के साधक ब्रह्म प्रतिपादक वाक्य शास्त्र हैं। ]
आप इसकी तनिक चिन्ता न करें कि [ स्वरूप का प्रतिपादन करने में ] कोई प्रयोजन नहीं । वेदान्त के वाक्यों का श्रवण और मनन कर लेने पर उससे अद्वितीय ( Monistic ) आत्मा के विज्ञान का अभ्यास किया जा सकता है । इसके बाद विद्या ( ज्ञान ) का उदय होने से संसार के निदान ( कारण ) अविद्या की निवृत्ति होती है तथा इसी के उपलक्षण के रूप में ब्रह्ममय हो जाना परम पुरुषार्थ ( Summum bonum ) है जिसकी प्राप्ति होती है । [ अतः शास्त्र-वाक्मों के मुख्यार्थ-बोध का उपयोग तो है ही। ]
न चात्र विधिः सम्भवति । विकल्पासहत्वात् । तथा हि-कि शाब्दज्ञानं विधेयं किं वा भावनात्मकमाहोस्वित्साक्षात्काररूपम् ?
नाद्यः । विदितपदार्थसंगतिकस्याधीतशब्दन्यायतत्त्वस्यान्तरेणापि विधि शब्दादेवोपपत्तेः। नापि द्वितीयः। भावनाया ज्ञानप्रकर्षहेतुभावस्यान्वयव्यतिरेकसिद्धतया प्राप्तत्वेनाविधेयत्वात् । अप्राप्तप्रापकस्यैव विधित्वाङ्गीकारात्।
यहाँ पर (= ब्रह्म का प्रतिपादन करनेवाले वेदान्तवाक्यों में) विधि की सम्भावना ही नहीं है क्योंकि नीचे दिये विकलों को सहने की शक्ति ही इसमें नहीं है। वे विकल्प हैंक्या शाब्दज्ञान ( सुने गये शब्दों से उत्पन्न ज्ञान ) का विधान किया जाता है या भावना का विधान होता है या साक्षात्कार का विधान करते हैं ?