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________________ पाणिनि-दर्शनम् ४९७ करनेवाला प्रयोजन कह ही देना चाहिए । [ शब्दानुशासन कहने से स्पष्ट हो जायगा कि व्याकरण एक वेदाङ्ग है, इसके अध्ययन में लगना चाहिए । ] यद्यन्वाख्यातेऽपि प्रयोजने न प्रवर्तेरंस्तहि लौकिकशब्दसंस्कारज्ञानरहितास्ते याज्ञे कर्मणि प्रत्यवायभाजो भवेयुः । धर्माद्धीयेरन् । अत एव याज्ञिकाः पठन्ति - आहिताग्निरपशब्दं प्रयुज्य प्रायश्चित्तीयां सारस्वतीमिष्ट निर्वपेत् ( पात० म० भा० पस्पश० ) इति । यदि प्रयोजन बतला देने पर भी उस ओर प्रवृत्त नहीं हो तो लौकिक शब्दों के संस्कार ( रचना, व्युत्पत्ति, Formation ) के ज्ञान से शून्य होने के कारण यज्ञ के कर्म में वे पाप के भागी होंगे तथा धर्म से च्युत होंगे । इसीलिए याज्ञिक लोग पढ़ते हैं - 'आहिताग्नि पुरुष यदि अपशब्द ( अशुद्ध शब्द ) का प्रयोग करे तो प्रायश्चित के रूप में उसे सरस्वती देवता की इष्टि ( यज्ञविशेष ) करनी चाहिए' ( महाभाग्य, पृ० पस्पश में उद्धृत ) । [ जो याज्ञिक व्याकरण नहीं जानते और यज्ञ कराने लगते हैं, उन्हें शब्दार्थ का ज्ञान न होने से पद-पद पर अशुद्धियां गले लगाने को तैयार रहती हैं - वे पापभागी होते हैं । अपशब्द के प्रयोग से होनेवाले पाप का प्रायश्चित सारस्वत इष्टि से होता है । ] ४ अतस्तदीयवेदाङ्गत्वप्रतिपादक योजनान्वाख्यानार्थमथ शब्दानुशासनमित्येव कथ्यते, नाथ व्याकरणमिति । भवति च शब्दसंस्कारो व्याकरणशास्त्रस्य प्रयोजनम् । तस्माच्छन्दानुशिष्टिः संस्कारपदवेदनीया शब्दानुशासनस्य प्रयोजनम् । इसलिए उसके वेदाङ्ग होने का प्रतिपादन करनेवाले प्रयोजन को बतलाने के लिए 'अथ शब्दानुशासनम्' यही कहते हैं, 'अथ व्याकरणम्' नहीं । व्याकरण - शास्त्र का प्रयोजन भी शब्द का संस्कार ( बनावट ) बतलाना ही है, क्योंकि उसके उद्देश्य से व्याकरण की प्रवृत्ति होती है । जैसे स्वर्ग के उद्देश्य से किये गये याग का प्रयोजन स्वर्ग ही हैं । इसलिए 'संस्कार' ( बनावट ) शब्द के द्वारा समझी जानेवाली शब्दानुशिष्टि ( शब्दों की रचना ) ही शब्दानुशासन का प्रयोजन है । विशेष- इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि पतंजलि ने व्याकरण का नाम शब्दानुशासन कुछ विशेष उद्देश्य से रखा है कि नाम से ही प्रयोजन की सिद्धि हो जाय । ( ४. व्याकरणशास्त्र की विधि - प्रतिपदपाठ नहीं ) नन्वेवमप्यभिमतं प्रयोजनं न लभ्यते । तदुपायाभावात् । अथ प्रतिपदपाठ एवाभ्युपाय इति मन्येथास्तर्हि स ह्यनभ्युपायः शब्दानां प्रतिपत्तौ प्रतिपदपाठो भवेत् । शब्दापशब्द भेदे नानन्त्या च्छन्दानाम् । एवं हि समाम्नायतेबृहस्पतिरिन्द्राय दिव्यं वर्षसहस्रं प्रतिपदपाठ विहितानां शब्दानां शब्दपारा यणं प्रोवाच । नान्तं जगाम । बृहस्पतिश्च प्रवक्ता । इन्द्रोऽध्येता । दिव्यं ܪܘ ܝܕ -
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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