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________________ ५१४ समानवंबहेदेखने से ) स्पष्ट नहीं होता, किन्तु अन्त में वही ( चांदी ) चित्त में अपने वास्तविक रूप में अभिव्यक्त हो जाती है। १०. नावैराहितबीजायामन्त्येन ध्वनिना सह । __ आवृत्तिपरिपाकायां बुद्धौ शब्दोऽवधार्यते ॥ (वाक्यप० ११८४) इति प्रामाणिकोक्तः । तस्मादस्माच्छब्दादर्थ प्रतिपद्यामह इति व्यवहारवशावर्णानामर्थवाचकत्वानुपपत्तेः। प्रथमे काण्डे तत्रभवद्धिर्भर्तृहरिभिरभिहितत्वानिरवयवमर्थप्रत्यायकं शब्दतत्त्वं स्फोटाख्यमभ्युपगन्तव्यमिति । एतत्सर्व परमार्थसंविल्लक्षणसत्ता जातिरेव सर्वेषां शब्दानामर्थ इति प्रतिपादनपरे जातिसमुद्देशे प्रतिपादितम् । ___ इसके लिए प्रामाणिक कथन भी है-'अन्तिम ध्वनि ( वर्ण ) के साथ नादों ( पहले से उच्चरित वर्णों की ध्वनियों ) के द्वारा उस बुद्धि में जिसमें बीज अर्थात् अभिव्यक्ति के अनुकूल संस्कार की स्थापना हो चुकी है तथा जो बुद्धि [ पहले के सभी संस्कारों की ] आवृत्ति के कारण परिपक्व अर्थात् योग्यता-सम्पन्न भी हो चुकी है, किसी शब्द का निर्धारण (निश्चय ) होता है' ( वाक्यपदीय ११८४)। [ बुद्धि में प्रत्येक शब्द का एक संस्कार रहता है जो शक्तिग्रह और आवृत्ति के कारण स्थित हो जाता है, तभी बुद्धि में योग्यता होती है। जब किसी पद या वाक्य का श्रवण करते हैं तब उस पद या वाक्य के प्रथम वर्ण से ही उक्त संस्कार जागने लगता है, या स्फोट स्पष्ट होने लगता है। अन्तिम वर्ण उच्चरित होते-होते सारे संस्कार उद्बुद्ध हो जाते हैं तथा 'अमुक शब्द है' यह ज्ञान होता है। यही आशय है । ] ___ इसलिए, 'इस शब्द से हम अर्थ की प्रतीति करते हैं ऐसा व्यवहार होने के कारण यह सिद्ध नहीं होता कि वर्ण अर्थ के वाचक हैं (प्रत्युत शब्द अर्थ के वाचक हो सकते हैं ] । वाक्यपदीय के प्रथम काण्ड में आदरणीय भर्तृहरि ने इसका वर्णन किया है अतः अवयवों से रहित, अर्थबोधक शब्दतत्त्व, जिसका नाम स्फोट है, हमें स्वीकार करना चाहिए । परमार्थ ( परम तत्त्व, ब्रह्म) के पूर्णज्ञान ( संवित ) रूपी लक्षण से युक्त जो [ सभी पदार्थों में विद्यमान ] सत्ता है, वह [ घट, पट आदि सम्बन्धियों के भेद से घटल्व पटत्व आदि की ] जाति के रूप में है तथा सभी शब्दों ( घट, पटादि ) का अर्थ भी वही ( सत्ताजाति ) है। इस प्रकार का प्रतिपादन करनेवाले जाति-समुद्देश ( वाक्यपदीप के तृतीय काण्ड का एक खण्ड ) नामक खण्ड में भतृहरि ने इसे स्पष्ट किया है। [अब सत्ता को अर्थ मानननेवाले पक्ष का खण्डन पूर्वपक्षी करेंगे। ] १. विशेष ज्ञान के लिए पं० सूर्यनारायण शुक्ल की व्याख्या से युक्त वाक्यपदीय देखें । पृ० ९७-९९ ।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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