SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 506
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैमिनि-वर्शनम् रादिकमेव तादृक्प्रतीतिजननक्षममिति मन्तव्यम् । दृष्टानुसारेणैव कल्पनाया आश्रयणीयत्वात् । तदुक्तं गुरुभिः सर्वज्ञनिराकरणवेलायाम् ६. यत्राप्यतिशयो दृष्टः स स्वार्थानतिलङ्घनात् । दूरसूक्ष्मादिदृष्टौ स्यान्न रूपे श्रोत्रवृत्तिता ॥ इति। यदि आप (पूर्वपक्षी ) लोगों के अनुसार यह भी मान लें कि परमेश्वर अपनी लीला के विग्रह धारण करते हैं तो भी इसका समाधान नहीं ही होता है कि वे अतीन्द्रिय वस्तुओं को कैसे देखते होंगे ? देश, काल और स्वभाव से जो वस्तुएं इन्द्रियों से असम्बद्ध (विप्रकृष्ट ) हैं उनके ग्रहण का परमेश्वर के पास कोई उपाय तो नहीं है। [ देशान्तर या लोकान्तर में विद्यमान वस्तु देश से विप्रकृष्ट होती है, भूत या भविष्यत् की वस्तु काल से विप्रकृष्ट होती है। कितनी चीजें स्वभाव से इन्द्रियासम्बद्ध हैं, जैसे-आँख से रस और गन्ध का ग्रहण । सभी इन्द्रियों के अपने-अपने विषय हैं जिन्हें स्वभाव कहते हैं । नाक से गन्ध ही ले सकते हैं, रूप नहीं, इत्यादि । ] ____ आप ऐसा नहीं कह सकते कि चक्षु आदि इन्द्रियाँ ही [ ईश्वर को विप्रकृष्ट वस्तुओं की भी ] वैसी प्रतीति कराने में समर्थ हैं । कल्पना भी देखी हुई वस्तुओं के आधार पर की जाती है, [ बेठिकाने की नहीं । ] सर्वज्ञ का निराकरण ( ईश्वर-खण्डन ) के अवसर पर प्रभाकर-गुरु ने कहा है-'जहाँ भी हम अतिशय (विशेष प्रकार की सामर्थ्य ) देखते हैं वहां वह ( सामर्थ्य ) अपने विषयों (जैसे चक्षु के लिए रूप) का बिना उल्लंघन किये हुए ही देखी जाती है। [स्वविषय का अतिक्रमण बिना किए हुए ही वह सामर्थ्य ] दूरस्थ वस्तुओं या सूक्ष्म वस्तुओं का ग्रहण करा पाती है। [ किन्तु इसका यह अर्थ ] कभी नहीं है कि रूप के विषय में श्रोत्रेन्द्रिय की वृत्ति देखी जाय ।'[ किसी व्यक्ति में अधिक शक्ति होने पर यह हो सकता है वह दूर की या सूक्ष्म वस्तुओं को देख ले, किन्तु देश, काल या स्वभाव के कारण जो वस्तु इन्द्रियों को पहुँच के बाहर हो गयी है, उसे तो नहीं देख सकता-वह व्यक्ति कान से देख नहीं सकता, नाक से सुन नहीं सकता। यही बात ईश्वर के साथ है। अतः जब आपका पुरुष ( ईश्वर) ही सत्तावान् नहीं तो वेद क्या पौरुषेय होंगे-ईश्वर वेद की रचना क्या कर सकेगा ? ] अत एव नागमबलात्तत्साधनम् । यथा 'तेन प्रोक्तम्' (पा० सू० ४॥३।१०१) इति पाणिन्यनुशासने जाग्रत्यपि काठक-कालाप-तैत्तिरीयमित्यादिसमाख्याध्ययनसम्प्रदायप्रवर्तकविषयत्वेनोपपद्यते, तद्ववत्रापि सम्प्रदायप्रवर्तक विषयत्वेनाप्युपपद्यते। ___इसीलिए ( सर्वज्ञ की सिद्धि न हो सकने के कारण ) आगम के बल से भी आपके साध्य ( पौरुषेयत्व ) की सिद्धि नहीं हो सकती। [युक्ति का विरोध होने के कारण ईश्वर के सर्वज्ञत्व को सिद्धि आगम में कही गयी बातों से नहीं हो सकती। ] जैसे पाणिनि के
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy