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________________ सर्वदर्शनसंग्रहे न च 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' ( ब्र० सू० १1919 ) इत्यादावधिकारिणोऽर्थतः सिद्धिराशङ्कनीया । तत्रायशब्देनानन्तर्याभिधानप्रणाडिकयाऽधिकारिसमर्पणसिद्धौ आर्थिकत्वशङ्कानुदयात् । अत एवोक्तं- श्रुतिप्राप्ते प्रकरणादीनामनवकाश इति । अस्यार्थः - यत्र हि श्रुत्यार्थो न लभ्यते तत्रैव प्रकरणादयोऽयं समर्पयन्ति नेतरत्र । यत्र तु शब्दादेवार्थस्योपलम्भस्तत्र नेतरस्य सम्भवः । ५७२ ऐसा सन्देह नहीं करना चाहिए कि 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' ( ब० सू० १1१1१ ) में भी अधिकारी की सिद्धि अर्थ से ही हो जायगी । [ शंका करनेवालों का तात्पर्य है कि इन सूत्रों में भी 'अथ' का अर्थ अधिकार ही क्यों न मान लें ? तब श्रुति प्रमाण के रूप में मिल जायगी - तमेवं विद्वानमृत इह भवति ( श्वेता० ३८ ) जिससे ब्रह्मज्ञान का फल मोक्ष मान लेंगे । फलतः मोक्ष का इच्छुक पुरुष अधिकारी है, यह अर्थ से ही सिद्ध हो जायगा । इसका उत्तर देते हैं । ] वहाँ पर प्रयुक्त 'अथ' शब्द से आनन्तर्य अर्थ का बोध होता है तथा यह सिद्ध होता है कि [ सिद्धान्तों या अर्थों का ] समर्पण ( Transmission ) एक निश्चित परम्परा से ही अधिकारियों को होता है, अतः उस अर्थ को अर्थतः सिद्ध करने की शंका ही नहीं उठती । [ जब किसी बात की सिद्धि सीधे ही या परम्परा से हो सकती हो तो अर्थ से सिद्ध करने की बात नहीं उठती । ] इसलिए कहा गया है - [ निश्चयात्मक प्रमाण के रूप में ] जब श्रुति प्राप्त हो तो प्रकरण आदि का अवकाश वहीं नहीं रहता' ( तुलनीय - ब्र० सू० ३।३।४९ | इसका अर्थ यह है - जहां श्रुति ( शब्द ) से अर्थ प्राप्त न हो वहीं पर प्रकरण आदि प्रमाण अर्थ के प्रकाशन या निर्णय में सहायता करते हैं, अन्यत्र नहीं । जहाँ शब्द से ही अर्थ की प्राप्ति हो जाय वहाँ दूसरे साधन की सम्भावना भी नहीं होती । शीघ्रबोधिन्या श्रुत्या विनियोगस्य बोधनेन निराकाङ्क्षतयेतरेषा - मनवकाशात् । किं च श्रुत्या बोधितेऽर्थे तद्विरुद्धार्थं प्रकरणादि समर्पयति, अविरुद्धं वा ? न प्रथमः । विरुद्धार्थबोधकस्य तस्य बाधितत्वात् । न चरमः । वैयर्थ्यात् । तदाह - 'श्रुतिलिङ्गवाक्यप्रक रणस्थानसमाख्यानां समवाये पारदौर्बल्यमर्थविप्रकर्षात् ' ( जं० सू० ३।३।१४ ) इति । [ जब किसी यज्ञ में किसी मन्त्र के ] विनियोग का बोध उस श्रुति प्रमाण से होता है जो तुरत बोध कराने में समर्थ है तब और किसी की आकांक्षा न रहने के कारण दूसरे प्रमाणों की प्राप्ति नहीं होती । [ 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' में अथ का अर्थ अधिकार ले लेने से किसके द्वारा ब्रह्म की जिज्ञासा की जाय ?" इस प्रकार अधिकारी की आकांक्षा होती है, मोक्ष के वाक्यों को देखकर उनसे कैसे मोक्ष उत्पन्न होता है, उस प्रकार साधन की आकांक्षा होती है । यह आकांक्षा ही 'प्रकरण' के नाम से पुकारी जाती है । प्रकरण
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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