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________________ शांकर-दर्शनम् ७३१ जन्यः । ज्ञातकरणत्वात्तेषाम् । न चैतत्सामग्रीकाले ज्ञातमस्ति। अनभूयते वा। ___ अब कोई पूछ सकता है कि इस अविद्या की सता सिद्ध करने के लिए प्रमाण क्या है ? हम उत्तर देंगे कि इसमें तो प्रतीति ही प्रमाण है-'मैं अज्ञ हूँ, अपने को या दूसरे को नहीं जानता' । [इस वाक्य में आत्मा पर आश्रित उस अविद्या-शक्ति की अनुभूति होती है जो बाहरी-भीतरी पदार्थों में व्याप्त है और जड़ात्मक है। यह अज्ञान ज्ञानाभाव के रूप में नहीं है। भावात्मक ( Positive ) कार्यों का उपादान-कारण होने से यह भावात्मक है।] कोई शंका कर सकता है कि यह तो ज्ञानाभाव का विषय है, आपके ( वेदान्तियों के ) अभीष्ट अर्थ की सिद्धि नहीं कर सकेगा। [आशय यह है कि इस अविद्या या अज्ञान से आप संसार की सिद्धि नहीं कर सकते । संसार तो प्रकृति, परमाणु आदि से बना है ] परन्तु ऐसी बात नहीं है, अनुपलब्धि ( Non-existence ) को प्रमाण माननेवाले ( भाट्ट मीमांसक और वेदान्ती ) लोग ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि अनुपलब्धि तो परोक्ष की प्रतीति करानेवाली होती है, [ प्रत्यक्ष को नहीं । 'भूतल में घट नहीं है' – इस तरह घटाभाव का ज्ञान अनुपलब्धि-प्रमाण से होता है। यह परोक्ष ज्ञान है, प्रत्मक्ष नहीं । जो लोग अनुपलब्धि नहीं मानते, वे अनुमानादि के द्वारा अभाव की प्रतीति करते हैं, प्रत्यक्ष के द्वारा नहीं । किसी भी दशा में अभाव की प्रतीति प्रत्यक्ष से नहीं होती । चूंकि 'मैं अज्ञ है' यह अनुभव है अतः इसे अभाव के शब्दों में ( in terms of non-existence ) व्यक्त नहीं किया जा सकता । ] अब यदि आप कहें कि यह भी परोक्ष अनुभव ही क्यों न माना जाय ? तो हम कहेंगे कि लिङ्ग ( अनुमान का कारण ), शब्द ( आगम का कारण ) या अन्यथानुपपत्ति ( अर्थापत्ति का कारण ) से इस अनुभव की उत्पत्ति नहीं होती। कारण यह है कि इन सबों में [ अर्थ ] ज्ञात होने पर ही दूसरों का बोध होता है। [ यह आशय है-यदि आप लोग 'अहमशः' इस ज्ञान को परोक्ष मानते हैं तो यह अनुमान आदि किसी प्रमाण से उत्पन्न होगा । इस अनुभव की सिद्धि न तो अनुमान से होती है, न शब्द से और न अर्थापत्ति सेअनुपलब्धि का अधिकार भी पीछे समाप्त हो जायगा। इनमें क्रमशः लिंग, शब्द तथा अनुपपन्न होनेवाला अर्थ स्वयं ज्ञात होने पर ही दूसरे अर्थ का बोधक हो सकता है। धूम (लिङ्ग) यदि रहे भी किन्तु ज्ञात न हो तो अग्नि का अनुमान नहीं करा सकता । शब्द भी जब तक ज्ञात न हो तब तक उससे शाब्दबोध नहीं होता । बहरे को शाब्दबोध नहीं होता। अर्थापत्ति में भी, दिन में न खानेवाले देवदत्त की स्थूलता ज्ञात रहने पर ही उसके रात्रिभोजन का ज्ञान कराती है। 'अहमशः' तो यह सब कुछ नहीं है। ] इसके अनुभव के समय वैसा (लिङ्गादि ) कुछ ज्ञात नहीं है और न वर्तमानकाल में ही उसका अनुभव
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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