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सर्वदर्शनसंग्रह
एक-एक पशु के धर्म की समाप्ति की जाय । तृतीय पाद ( ४४ ) में वृद्धि और अवृद्धि पर विचार हुआ है, जैसे अग्नि और सोम को एक साथ दिये जानेवाले ( अग्निषोमीय ) पशु में ग्यारह प्रयाजों का यज्ञ होता है । तो इसमें पांच प्रयाजों की पुन: आवृत्ति करके अन्तिम प्रयाज की एक बार और आवृत्ति करने पर ग्यारह संख्या पूर्ण हो जाती है यह वृद्धि हुई, कहीं पर ऐसा नहीं करके पहले जैसी ही संख्या छोड़ देते हैं । चतुर्थ पाद ( २६ ) में श्रुति आदि छह प्रमाणों में पहले के प्रमाण प्रबल हैं, बाद के दुर्बल, इसका विचार हुआ है।]
छठे अध्याय में यज्ञ करने के अधिकारी व्यक्ति, उनके धर्म, यज्ञ में प्रयुक्त होने के लिए विहित द्रव्यों के ( न मिलने पर ) स्थान में दिये गये द्रव्य, द्रव्यों का लोप, प्रायश्चित्त कर्म, सत्रकर्म, देय वस्तु तथा विभिन्न अग्नियों में होम-इनका वर्णन है। [ षष्ठाध्याय में आठ पाद हैं। प्रथम पाद ( ५२ ) में यज्ञ करने के अधिकारी का निरूपण हुआ है कि आंख वाला ही यज्ञ कर सकता है, अन्धा नहीं। द्वितीय पाद ( ३१ ) में अधिकारियों के धर्म का विचार हुआ है । तृतीय पाद ( ४१ ) में मुख्य वस्तु के अभाव में प्राप्य वस्तु का कहाँ-कहाँ ग्रहण करें, कहां नहीं, इसका विचार हुआ है। चतुर्थ पाद ( ४७ ) में किस वस्तु का कहाँ लोप होता है, यह निरूपित हुआ है। पंचम पाद ( ५६ ) में कहीं भूल हो जाने पर प्रायश्चित्त करने का विधान है। षष्ठ पाद ( ३९ ) में सत्र नामक यज्ञ के अधिकारियों का वर्णन हुआ है। सप्तम पाद ( ४० ) में अदेय तथा देय वस्तुओं का वर्णन हुआ है । अष्टम पाद ( ४३ ) में यह विचार है कि लौकिक अग्नि में कहां होम करें।]
सातवें अध्याय में वैदिक वाक्यों के प्रत्यक्ष आदेश से किसी यज्ञ के कर्मों का दूसरे यज्ञ में स्थानान्तरण (प्रथम पाद २३), अवशिष्ट विचार ( तृतीय पाद २१ ), [ अग्निहोत्र आदि ] नामों के कारण स्थानान्तरण ( तृतीय पाद ३६ ) तथा लिंग के कारण स्थानान्तरण ( चतुर्थ पाद २० ) का वर्णन है।
अष्टमे स्पष्टास्पष्टप्रबललिङ्गातिदेशापवादविचारः। नवमे ऊहविचारारम्भसामोहमन्त्रोहतत्प्रसङ्गागतविचारः। दशमे बाधहेतुद्वारलोपविस्तारबाधकारणकार्यकत्वसमुच्चयग्रहादिसामप्रकीर्णनञर्थविचारः । एकादशे तन्त्रोपोद्घातन्त्रावापतन्त्रप्रपञ्चनवापप्रपञ्चनचिन्तनानि । द्वादशे प्रसङ्गतन्त्रिनिर्णयसमुच्चयविकल्पविचारः। ___ आठवें अध्याय में स्पष्ट लिंगों के द्वारा किये गये अतिदेश ( प्रथम पाद ४३ ), अस्पष्ट लिंगों के द्वारा किये गये अतिदेश या स्थानान्तरण ( द्वितीय पाद ३२ ), प्रबल लिंगों से किये गये स्थानान्तरण ( तृतीय पाद ३६ ) तथा अन्त में इन अतिदेशों अर्थात् स्थानान्तरणों के अपवाद प्रदर्शित हैं ( चतुर्थ पाद २७ )।
नर्वे अध्याय में ऊह ( मन्त्र में आये हुए देवता, लिंग, संख्या आदि के वाचक शब्दों का प्रयोगविशेष में अवसर के अनुसार परिवर्तन ) के विचार का प्रारम्भ ( प्रथम पाद