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आर्हत-दर्शनम्
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पत्ता, फूल, फल के रूप में, नवीन वस्तु जीर्ण-शीर्ण वस्तु के रूप में - यह सब काल के कारण ही होता है ।
( २१. सात तत्त्व- - तीसरा मत )
केचन सप्त तत्त्वानीति वर्णयन्ति । तदाह-जीवाजी वात्रवबन्धसम्वरनिर्जरमोक्षास्तत्त्वानि ( त० सू० १1४ ) इति । तत्र जीवाजीवौ निरूपितौ । आस्रवो निरूप्यते - औदारिकादिकायादिचलनद्वारेण आत्मनश्चलनं योगपदवेदनीयमास्त्रवः । यथा सलिलावगाहि द्वारं जलाद्यास्रवणकारणत्वादानव इति निगद्यते, तथा योगप्रणाडिकया कर्मास्रवतीति स योग आस्रवः ।
कुछ लोग ( जैन दार्शनिक ) सात तत्त्वों का वर्णन करते हैं । यह बात | सूत्रकार भी ] कहते हैं—-जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये तत्त्व हैं (न सू० १४ ) । उनमें जीव और अजीव का निरूपण तो हो चुका है ( देखिये - अनुच्छेद १८ ) । अब आस्रव का निरूपण किया जाता है- औदारिक आदि कायों तथा दूसरे साधनों ( = मन और वचन ) के चलने से आत्मा का चलना, जिसे योग भी कहते हैं, आस्रव है । जिस प्रकार पानी में डूबा हुआ [ किसी नली का ] छेद आस्रव कहलाता है क्योंकि जलादि का इसी से होकर आस्रवण ( गिरना, बहना ) होता है, उसी प्रकार योग ( = आत्मा की चञ्चलता ) - रूपी नली के द्वारा | आत्मा या जीव ] कर्म का आस्रवण ( Flow, प्रवाह, बहना ) होता है, यह योग ( जीव का कर्म से बँधना ) ही आस्रव है ।
उदार
स्थूल, उसमें उत्पन्न
विशेष - आस्रव के लक्षण में कुछ शास्त्रीय पदों का प्रयोग हुआ है, उन्हें देखा जाय । काय (शरीर ) के पांच भेद हैं- औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तेजस और कार्मण । दे० तत्त्वार्थाधिगमसूत्र ( २३६ ) | ये काय एक की अपेक्षा दूसरे सूक्ष्म से सूक्ष्मतर हैं । औदार = स्थूल शरीर से साध्य कर्म आदि । औदार जिसका प्रयोजन है वह औदारिक = यह दृश्यमान स्थूल शरीर । वैक्रियिक इसकी अपेक्षा सूक्ष्म है । विक्रिया सामर्थ्य के कारण अनणु को अणु बना देना तथा लघु को महान बना देना । विक्रिया जिसका प्रयोजन है वह वैक्रियिक = जो दृश्य नहीं है ऐसा शरीर । आहारक इससे भी सूक्ष्म है । आहारक वह है जिसे आहत अर्थात् स्वीकृत किया जाय । सूक्ष्म वस्तुओं के परिज्ञान के लिए इसे स्वीकृत किया गया है। तेज ( अग्नि ) में उत्पन्न तैजस है जो आहारक की अपेक्षा सूक्ष्म है । सबसे सूक्ष्म कार्मण है जिसमें शब्दादि भी प्राप्त नहीं होते । यद्यपि पाँचों प्रकार के शरीरों का है निमित्त कर्म ही फिर भी रूढिवश
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१. चेतनालक्षणो जीवः । तद्विपर्ययलक्षणोऽजीवः । शुभाशुभकर्मागमद्वारमात्रवः । आत्मकर्मणोरन्योन्यावयवानुप्रवेशो बन्धः । आस्रवनिरोधः संवरः । कर्मैकदेशसंश्रयो निर्जरा | कृत्स्नकर्मवियोगो मोक्षः -- इत्येषां सामान्यलक्षणानि ( अभ्यङ्करः ) ।