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अक्षपाद-दर्शनम्
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अब कोई यह शंका करे कि 'एक की खोज में चले और दूसरा भी नष्ट हो जाय' इस नियम से दुःख की तरह ( दुःख-निवृत्ति के साथ ) सुख की भी निवृत्ति हो जायगी, इसलिए [ नेयायिकों के दुःखोच्छेदनवाद का ] यह पक्ष कभी काम्य नहीं हो सकता। दुःख की निवृत्ति करने चले और हाथों से सुख भी चला जाय तो अच्छा नहीं है । एक की खोज मे दूसरा खोना नहीं चाहिए । कम-से-कम सुख तो मिलता रहेगा।] ___ नैयायिक उत्तर देते हैं कि ऐसा न समझें । सुख का सम्पादन करनेवाले पदार्थों में दुःख के ही साधनों की प्रचुरता रहती है, यह नियम है। [ दुःखप्रद वस्तुओं को सुखद समझना वैसा ही है ] जैसे कोई व्यक्ति तप्त लोहे के पिण्ड को स्वर्ण ( तपनीय ) समझकर पकड़ने जाय । [ स्वर्ण की प्राप्ति तो उसे नहीं ही होगी, उलटे गर्म लोहे से वह जल जायगा । उसी प्रकार विषयों को सुखप्रद समझनेवालों को सुख तो मिलेगा कि नहीं, संदेह है। किन्तु दुःख अनिवार्य है । ऐसे दुःख से सने सुख की कामना किसे होगी ? सुख में दुःख अनिवार्य ही नहीं, प्रत्युत दुःख की अधिकता भी है। ] देखिये-न्याय से उपार्जित विषयों में सुख के खद्योत ( जुगुनू ) कितने थोड़े हैं । [ जो जहाँ-तहाँ चमक उठते हैं और कितने ही दुःख के दुर्दिन ( मेघाच्छन्न वर्षादिन ) हैं [ जो सुखों को निगल जाते हैं ], अन्याय से उपार्जित विषयों में तो जो होगा उसका चिन्तन मन से हो ही नहीं सकता।
एतत्स्वानुभवमप्रच्छादयन्तः सन्तो विदांकुर्वन्तु विदां वरा भवन्तः । तस्मात्परिशेषात् परमेश्वरानुग्रहवशात् श्रवणादिक्रमेण आत्मतत्त्वसाक्षाकारवतः पुरुषधौरेयस्य दुःखनिवृत्तिरात्यन्तिको निःश्रेयसमिति निरवद्यम् । ___ इस विषय में आप लोग अपना अनुभव निरूपित न करके इस पर विचार करें, क्योंकि आप विद्वानों में श्रेष्ठ हैं । इसलिए अब बात इतनी ही बची है कि परमेश्वर के अनुग्रह से श्रवण ( श्रुति-वाक्यों का श्रवण ) आदि के क्रम से आत्मतत्वका साक्षात्कार करनेवाले पुरुष श्रेष्ठ के लिए दुःखों से आत्यन्तिक रूप से निवृत्त हो जाना ही निःश्रेयस ( मोक्ष ) है, यह स्पष्ट है।
( १३. ईश्वर की सत्ता के लिए पूर्वपक्ष ) नन्वीश्वरसद्भावे किं प्रमाणं प्रत्यक्षमनुमानमागमो वा। न तावदत्र प्रत्यक्ष क्रमते । रूपादिरहितत्वेनातीन्द्रियत्वात् । नाप्यनुमानम् । तद्व्याप्तलिङ्गाभावात् । नागमः। विकल्पासहत्वात् । किं नित्योऽवगमयति अनित्यो वा ? आद्येऽपसिद्धान्तापातः। द्वितीये परस्पराश्रयापातः । उपमानादिकमशक्यशङ्कम् । नियतविषयत्वात् । तस्मादीश्वरः शशविषाणायत इति चेत्।