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________________ ४२ सर्वदर्शनसंग्रहे सहकारिभिः अतिशयान्तरमाधेयं बीजे । तस्मिन्नप्युपकारे पूर्वन्यायेन सहकारिसापेक्षस्य बीजस्य जनकत्वे सहकारिसम्पाद्य बी जगतातिशयानवस्था प्रथमा व्यवस्थिता । बीज एक अतिशय का ग्रहण करते हुए, दूसरे सहकारी भाव की आवश्यकता होने के कारण ही ऐसा करता है । नहीं तो ( = अर्थात् यदि अतिशय का ग्रहण करना दूसरे सहकारी की आवश्यकता के कारण न हो बल्कि उसे स्वभावतः माना जाय ), यदि [ जल आदि सहकारियों को पकड़कर | सदैव बीज से अतिशय ग्रहण किया जाय तब ऐसा प्रसंग हो जायगा कि बीज से सदा अंकुर निकलता रहेगा । ( फलित यह है कि बीज यदि सहकारी भाव की आवश्यकता न रखे और अतिशय से ही काम चला ले तो सदा अंकुर की उत्पत्ति होती रहेगी क्योंकि कारणस्वरूप बीज से अतिशय ग्रहण करने पर कार्यस्वरूप अंकुर भी उसी प्रकार उत्पन्न होता रहेगा ) । इसलिए प्रथम अतिशय को धारण करने के लिए अपेक्षित दूसरे सहकारी भावों को चाहिए कि वे बीज में दूसरे अतिशय को भी धारण करें । इस प्रकार से उपकार हो जाने पर ( = अतिशयान्तर के मिल जाने पर ) तथा पहले की तरह सहकारियों की अपेक्षा रखनेवाले बीज के [ आधाररूप में ] उत्पादक बन जाने पर ( = जब बीज सहकारियों की सहायता से उत्पादक बन जाय तब ), पहली अनवस्था उत्पन्न हो जाती है जो सहकारियों की सहायता से सम्पन्न होनेवाले बीज के अतिशय से सम्बद्ध रहती है । ( बीज के सहकारियों और अतिशय की एक अनन्त परम्परा चल पड़ती है जब कभी भी एक अतिशय दूसरे को उत्पन्न करने लगता हैं ) । ( ११. अनवस्था सं० २ ) अथोपकारः कार्यार्थमपेक्ष्यमाणोऽपि बीजादिनिरपेक्षं कार्यं जनयति तत्सापेक्षं वा । प्रथमे बीजादेरहेतुत्वमापतेत् । द्वितीयेऽपेक्ष्यमाणेन बीजादिनोपकारेऽतिशय आधेयः । एवं तत्र तत्रापीति बीजादिजन्यातिशयनिष्ठातिशयपरम्परापात इति द्वितीयानवस्था स्थिरा भवेत् । [ अब हम पूछते हैं कि ] इस प्रकार का उपकार ( अतिशय का धारण ) कार्योत्पत्ति के लिए अपेक्षित होने पर भी बीज आदि से पृथक् होकर कार्य को उत्पन्न करता है या उनकी अपेक्षा भी रखता है ? यदि पहला विकल्प लेते हैं तो बीज आदि कभी भी कारण नहीं हो सकते ( क्योंकि कारण वही है जो कार्योत्पति में सहायक हो लेकिन यहाँ बीज वैसा नहीं है । दूसरे विकल्प को लेने पर, अपेक्षित बीज आदि को उपकार होने पर अतिशय लेना चाहिए । इस तरह उन उन अवस्थाओं में भी, बीजादि से उत्पन्न अतिशय में अतिशयों की एक अत्यन्त परम्परा चल पड़ेगी जिससे दूसरी अनवस्था भी दृढ़ हो जाती है ।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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