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________________ १३२ सर्वदर्शनसंग्रहे होता है (= ग्रहण होता है )। इसलिए धर्म-अस्तिकाय (पदार्थ) का अनुमान प्रवृत्ति ( गति Motion ) देखकर करते हैं, अधर्म-अस्तिकाय स्थिति ( Rest ) से अनुमेय है । एक वस्तु के स्थान में दूसरी वस्तु का प्रवेश होना 'अवगाह' है, यही आकाश का काम है। विशेष-जिस प्रकार जीव और पुद्गल के कई भेद हैं, उस तरह धर्म, अधर्म और आकाश में भेद नहीं होते-ये अकेले ही हैं ( आ आकाशादेकद्रव्याणि, त० सू० ५।६)। बाहरी या भीतरी किसी भी कारण से पदार्थ में कोई विशेष अवस्था उत्पन्न हो जाये, जिससे पदार्थ ( या द्रव्य ) दूसरे स्थान में पहुँच जाये-इसी का नाम 'क्रिया' है । उपर्युक्त तीनों अस्तिकाय क्रिया से भी रहित हैं, ज्यों-के-त्यों रहते हैं । हाँ, ये जीवों और पुद्गलों में क्रिया ( देशान्तर-प्राप्ति ) उत्पन्न करने के कारण होते हैं । __ आकाश के दो रूप हैं-लोकाकाश और अलोकाकाश । लोक से सम्बद्ध आकाश लोकाकाश है। इसी में धर्म और अधर्म रहते हैं, इनके भी पुद्गल होते हैं। धर्माधर्म से आकाश वैसा ही व्याप्त है जैसा तेल से तिल रहता है। तात्पर्य यह है कि ये आकाश में सर्वत्र हैं, कोई स्थान इनसे खाली नहीं है (धर्माधर्मयोः कृत्स्ने, त० स० ५२१३) । उपग्रह और उपकार दोनों ग्रहण (Apprehension ) के अर्थ में लिये गये हैं। जीव के द्वारा गृहीत गति का नाम धर्म है, स्थिति का नाम अधर्म । यों दोनों की स्थिति सर्वत्र होती है । इस पर अभ्यंकरजी ने दृष्टान्त दिया है-जैसे मछली की गति होने पर जल साधारण अवस्था में रहता है उसी तरह जीवों की गति होने पर धर्म। फिर, जैसे घोड़े की स्थिति होने पर पृथिवी साधारण अवस्था में रहती है उसी तरह जीवों की स्थिति में अधर्म भी रहता है। गति और स्थिति जीव के विशेष परिवर्तनों के नाम हैं। धर्म और अधर्म को हम देख नहीं सकते, केवल जीव की गति और स्थिति देखकर उनका अनुमान भर हो सकता है। स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः ( त० सू० ५।२४ )। ते च द्विविधाःअणवः स्कन्धाश्च । भोक्तुमशक्या अणवः । द्वयणुकादयः स्कन्धाः। तत्र द्वयणुकादिस्कन्धभेदात् अण्वादिरुत्पद्यते । अण्वादिसङ्घाताद् द्वयणकादिरुत्पद्यते । क्वचिद् भेदसङ्घाताभ्यां स्कन्धोत्पत्तिः ( त० सू० ५।२६ ) । अतएव पूरयन्ति गलन्तीति पुद्गलाः । ___स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण ( रूप ) से युक्त पुद्गल होते हैं। वे दो प्रकार के हैंअणु ( Atomic ) और स्कन्ध ( Compound )। [ अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण, ग्रहण, धारण, निक्षेपण आदि के न होने से ] अणुओं का उपभोग नहीं किया जा सकता। यणुक ( दो अणुओं से बना हुआ ) से आरम्भ करके स्कन्ध होते हैं । द्वयणुक आदि स्कन्धों का ( विश्लेषण Analysis ) करने पर अणु आदि उत्पन्न होते हैं। अणु आदि के समूह
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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