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सर्वदर्शनसंग्रहे
५४. प्रथमस्तु हनूमान्स्याद् द्वितीयो भीम एव च । पूर्णप्रज्ञस्तृतीयश्च भगवत्कार्य साधकः || एतदेवाभिप्रेत्य तत्र तत्र ग्रन्थसमाप्ताविदं पद्यं लिख्यते५५. यस्य त्रीण्युदिता निवेदवचने दिव्यानि रूपाण्यलं बट् तद्दर्शतमित्थमेव निहितं देवस्य भर्गो महत् । वायो रामवचोनयं प्रथमकं पृक्षो द्वितीयं वपुमध्वो यत्तु तृतीयमेतदमुना ग्रन्थः कृतः केशवे ॥ ( म० भा० ता० ३२।१८१ ) ।
पूर्णप्रज्ञ जो अपने को वायु का तीसरा अवतार मानते हैं तथा जिनका नाम मव्यमन्दिर भी है, उन्होंने इन सभी रहस्यों का निरूपण किया है । [ वायु के तीनों अवतार ये हैं - ] 'पहले हनुमान हैं, दूसरे भीम और तीसरे पूर्णप्रज्ञ- ये सब भगवत् के कार्यों के साधक हैं ।' इसी को लक्ष्य में रखकर जहाँ-तहाँ ( जैसे -- ब्रह्मसूत्रभाष्य, विष्णुतत्त्वविनिर्णय, महाभारततात्पर्यनिर्णय आदि ग्रन्थों में ) ग्रन्थ की समाप्ति होने पर उन्होंने यह पद्य लिखा है - ' ( ५५ ) वेद के वाक्यों में जिसके तीन रूप पर्याप्त रूप से मिलते हैं ( कहे गये हैं ( 'बडित्था' और 'तद्दर्शतम् ' ( ऋ० १|१४१|१ ) आदि श्रुतियों में इस रूप में ही ( बट् = बलात्मक, दर्शतम् = ज्ञानपूर्ण ) जिस वायु-देव के भर्ग ( भरण और गमन ) रूपी गुण और महत नामक तत्त्व माने गये हैं, उस वायु का पहला शरीर वह है जो राम के सन्देश को [ सीता के पास ] पहुंचानेवाला है ( = हनुमान का अवतार ), दूसरा शरीर पृक्ष ( सेनानाशक, पृ = पृतना = सेना, क्ष = V क्षि = नाश करना, कौरव सेन्य का विनाश करनेवाला ) भीम का है और तीसरा शरीर मध्व का है जिनके द्वारा केशव के लिए यह ग्रन्थ लिखा गया ।' ( महाभारततात्पर्यनिर्णय ३२ १८१ ) ।
विशेष - हनुमान का उल्लेख 'रामवचोनयम्' के द्वारा हुआ है। इसके तीन अर्थ हो सकते हैं । राम के वचनों अर्थात् संवाद को सीता तक पहुँचानेवाला; राम के विषय की बातें जैसे मूलरामायण, उसे शिष्यों तक पहुँचानेवाला; राम की वाणी द्वारा जो नय ( आज्ञा ) मिले उसको पालनेवाला | 'मध्व' शब्द में मधु और व हैं । मधु का आनन्द अर्थ है और व का तीर्थ, जिसका तीर्थ ( शास्त्र ) आनन्दकर हो । आनन्दतीर्थ नाम पड़ने का भी यही रहस्य है । कुल मिलाकर चार शब्दों से इनका बोध होता है- मध्वाचार्य, आनन्दतीर्थ, पूर्णप्रज्ञ और मव्यमन्दिर । मध्व के विषय में कहा है
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मध्वित्यानन्द उद्दिष्टो वेति तीर्थमुदाहृतम् ।
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मध्व आनन्दतीर्थः स्यात्तृतीया मारुती तनुः ॥
बलित्था आदि मन्त्र का अर्थ आगे देखें ।
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एतत्पद्यार्थस्तु 'बळित्था तद्वपुषे धायि दर्शतं देवस्य भर्गः सहसो यतोऽजनि' ( ऋ० ११४१।१ ) इत्यादिश्रुतिपर्यालोचनयाऽवगम्यत इति ।