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सर्वदर्शनसंग्रह
सम्बन्ध होने पर ही उत्पत्ति होती है । यह आज तक सुना नहीं गया कि खरहे की सींग या वन्ध्यापुत्र का सम्बन्ध किसी सत्तायुक्त पदार्थ के साथ हुआ है-असत् और सत् का सम्बन्ध हो ही नहीं सकता । पहले से असत् घटादि-कार्य का सम्बन्ध सत्ता से नहीं हो सकता इसलिए घटादि-कार्य की उत्पत्ति ( = सत्ता से सम्बन्ध ) नहीं मानी जा सकती। ] सबसे निपुण व्यक्ति भी नीले को पीला नहीं कर सकते । [नील में पीत की सत्ता नहीं हैपीत वहाँ असत् है जब कि कार्यरूप में सत् है । तो जब नीले में पीला नहीं है तो नीला रंग कभी पीला नहीं होगा-असत् पीत कभी भी सत् पीत नहीं बन सकता । पहले से असत् घट कुम्भकार के व्यापार से भी सत् नहीं किया जा सकता । असत् और सत् में परस्पर विरोध है-वे कार्य-कारण भाव नहीं रख सकते।]
अब यदि ये ( नेयायिक ) कहें कि सत्ता और असत्ता, घट के दो धर्म हैं [ अर्थात् जैसे वलयत्व धर्म से विभूषित स्वर्णकार के व्यापार ( क्रिया ) से स्वर्ण कुण्डलत्व-धर्म से युक्त हो जाता है वैसे ही यहां असत्त्व-धर्म से विशिष्ट घट कुम्भकारादि के व्यापार से सत्त्व-धर्म से युक्त हो जायगा ], तो हम यह कहेंगे कि यह कहना उन्हें शोभा नहीं देता। धर्मी ( घट) के नहीं रहने पर हम यह नहीं कह सकते कि यह ( असत् ) उस ( घट ) का धर्म है । नहीं तो धर्मी ( घट ) की सत्ता माननी पड़ेगी ( = घट की नित्यता स्वीकार करनी पड़ेगी)। [आशय यह है कि यदि असत्त्व घट का धर्म माना जाय तो धर्म ( असत्व ) धर्मी (घट) के बिना नहीं रह सकता-यह भी मानना पड़ेगा। तो असत्त्व-धर्म के समय धर्मी (घट) की सत्ता माननी पड़ेगी, अतः घट की सत्ता रहेगी। यही नहीं, इसके फल-स्वरूप घट नित्य हो जायगा क्योंकि जब असत् काल में भी घट है तब तो वह नित्य ही न है ? ]
विशेष-यहां पर दो ही मतों का खण्डन किया गया है, विवर्तवाद का खण्डन बाद में करेंगे । अप अपने सत्कार्यवादका सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं ।
(८. सत्कार्यवाद की सिद्धि) तस्मात्कारकव्यापारात्प्रागपि कार्य सदेव । सतश्चाभिव्यक्तिरुपपद्यते । यथा पौडनेन तिलेषु तैलस्य, दोहनेन सौरभेयीषु पयसः । असतः कारणे किमपि निदर्शनं न दृश्यते । किं च कार्येण कारणं सम्बद्धं तज्जनकमसम्बद्धं वा। प्रथमे कार्यस्य सत्त्वमायातम् । सतोरेव सम्बन्ध इति नियमात् । चरमे सर्व कार्यजातं सर्वस्माज्जायेत । असम्बद्धत्वाविशेषात् । ___ इसलिए यह सिद्ध हुआ कि कारक ( कर्ता, हेतु, कारण ) के व्यापार के पूर्व भी कार्य की सत्ता रहती ही है। [ तब कुम्भकार आदि की आवश्यकता क्यों ? ] हाँ, इतना अवश्य है कि पहले से विद्यमान ( सत् ) कार्य की केवल अभिव्यक्ति होती है [ जिसमें निमित्त कारण की अपेक्षा रहती है। ] उदाहरण के लिए जैसे-पीसने (पेरने ) पर तिलों से तेल की या दूहने पर गायों से दूध को [ अभिव्यक्ति होती है। तिलों में तेल या गायों में दूध