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________________ आहेत-दर्शनम् स्थिति और अनुभव के वचनों के कारण हैं जब कि योग ( या आस्रव ) प्रकृति और प्रदेश के बन्धनों का कारण है। ( २२. क बन्धन के भेद ) बन्धश्चतुर्विध इत्युक्तं, प्रकृति,स्थित्यनुभवप्रदेशास्तद्विधयः ( त० सू० ८३३ ) इति । यथा निम्बगुडादेस्तिक्तत्वमधुरत्वादिस्वभाव एवमावरणीयस्य ज्ञानदर्शनावरणत्वम् आदित्यप्रभाच्छादकाम्भोधरवत्प्रदीपप्रभातिरोधायककुम्भवच्च । सदसवेंदनीयस्य सुखदुःखोत्पादकत्वमसिधारामधुलेहनवत् । ऊपर जो चार प्रकार का हेतु कहा गया है | उसे सूत्र में कहा है- ] 'प्रकृति-बन्ध, स्थिति-बन्ध तथा प्रदेश-बन्ध-ये उस ( बन्ध ) के प्रकार हैं ।' (त० सू० ८।३) अब इन चारों बन्धों का क्रमशः निरूपण करते हुए पहले प्रतिबन्ध के आठ भेदों का वर्णन होगा। ये भेद हैं—(१) ज्ञानावरण, ( २ ) दर्शनावरण, ( ३ ) वेदनीय, ( ४ ) मोहनीय, ( ५ ) आयुः, ( ६ ) नाम, ( ७ ) गोत्र, (८ ) अन्तराय । ये आठ प्रकार के कर्म हैं । इनसे ही व्यक्ति बन्धन में पड़ता है । ] जिस प्रकार नीम, गुड़, आदि में तिताई ( Bittorness ), मिठास आदि स्वभाव के रूप में है, उसी प्रकार ( आवरणीय ) कर्म में ज्ञान और दर्शन का आवरण करना स्वभाव है । दृष्टान्त के लिए सूर्य के प्रकाश को ढंकनेवाले मेघ और दीपक के प्रकाश को छिपानेवाले घड़े को लें। [ सूर्य के प्रकाश का मेघ द्वारा आवृत होना ज्ञानावरण का दृष्टान्त है जिसमें वस्तु का स्वरूप ज्ञात नहीं होता, ज्ञातृत्व-शक्ति ढंक जाती है। दर्शनावरण के दृष्टान्त में दीपक के प्रकाश का छिपना है जिसमें वस्तु को देखने की शक्ति छिप जाती है। सत् और असत् के रूप से ज्ञेय पदार्थ का ( एक साथ ही ) सुख-दुःख को उत्पन्न करना [ वेदनीय कर्म है ] जिसके दृष्टान्त में तलवार की धार पर वर्तमान मधु का चाटना है । ( एक ही साथ सुख और दुःख दोनों हैं ) क्योंकि तलवार की धार से जीभ कट जाना दुःख, है, मधु का चाटना सुख । यही वेदनीय कर्म है = सुख + दुःख का संवेदन । ____दर्शने मोहनीयस्य तत्त्वार्थाश्रद्धानकारित्वं दुर्जनसङ्गवत् ? चारित्रे मोहनीयस्यासंयमहेतुत्वं मद्यमदवत् । आयुषो देहबन्धनकर्तृकं जलवत् । नाम्नो विचित्रनामकारित्वं चित्रिकवत् । गोत्रस्योच्चनीचकारित्वं कुम्भकारवत् । दानादीनां विघ्ननिदानत्वमन्तरायस्य स्वभावः कोषाध्यक्षवत् । सोऽयं प्रकृतिबन्धोऽष्टविधो द्रव्यकर्मावान्तरभेदमूलप्रकृतिवेदनीयः । तथावोचदुमास्वातिवाचकाचार्यः-आद्योज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुर्नामगोत्रान्तरायाः ( त० सू० ८।४) इति ।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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