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________________ पूर्णप्रसा-वर्शन २१९ से देख लेने पर, भेद का आभास भी दृष्टिगोचर होगा (अर्थात् वस्तु का अपना स्वरूप दिखलाई नहीं पड़ेगा)। उक्त उदाहरण में आँख का सन्निकर्ष तो रहता ही है। स्वरूप को ही भेद मानने पर भेद का भी ग्रहण होगा कि यह जल है, यह दूध है । इसमें भेद का प्रतिभास अवश्य होगा, परन्तु भेदज्ञान ही नहीं रहता है। ] कारण यह है कि भेद के आभासरूपी व्यवहार के अभाव की सिद्धि समानाभिहार ( एक प्रकार के ही पदार्थों का समूह ) आदि प्रतिबन्धक ( प्रत्यक्षज्ञान को रोकनेवाले ) कारणों के बल से होती है। [ समानाभिहार एक प्रकार के पदार्थों का ही एक स्थान पर रहना । ऐसी स्थिति में किसी वस्तु को समूह से पृथक् करना कठिन है--प्रत्यक्षज्ञान में भी यह प्रतिबन्ध डालता है। नीर-क्षीर एक प्रकार के ही पदार्थ हैं, इनको पृथक् करना कठिन है, इसलिए भेदाभास का व्यवहार यहाँ पर नहीं होता । ऐसी बात नहीं है कि भेद यहां है ही नहीं। वास्तव में दो पदार्थों के सादृश्य के कारण मिश्रित हो जाने से उनका पार्थक्य समझ में नहीं आता, भेद तो है ही। अतः नीर-क्षीर में स्वरूप का ग्रहण कर लेने पर भेद का प्रतिभास इसलिए नहीं होता कि नीर-क्षीर मिलकर एक हो गये हैं, समानाभिहार हो गया है। नहीं तो ऐसी कोई भी स्थिति नहीं है जिसमें स्वरूप का ज्ञान होने पर भेद का प्रतिभास नहीं हो। ] तदुक्तम्१२. अतिदूरात्सामीप्यादिन्द्रियघातान्मनोऽनवस्थानात् । सोक्म्याद् व्यवधानादभिभवात्समानाभिहाराच्च ॥ (सांख्यकारिका, ७) इति । अतिदूरात् = गिरिशिखरवर्तिपर्वतादौ, अतिसामीप्यात् = लोचनाञ्जनादौ, इन्द्रियघातात् = विधुदादी, मनोऽनवस्थानात् = कामाद्युपप्लुतमनस्कस्य स्फीतालोकवतिनि घटादौ, सौम्यात् = परमाण्वादी, व्यवधानात् = कुडघान्तहिते, अभिभवात् = दिवा प्रदीपप्रभादौ, समानाभिहारात् = नीरक्षीरादौ यथावत् ग्रहणं नास्तीत्यर्थः। ऐसा ही [ सांख्यकारिका में ] कहा गया है-'बहुत दूर होने के कारण, बहुत नजदीक होने के कारण, इन्द्रियों में दोष होने के कारण, मन के अव्यवस्थित (चंचल ) होने के कारण, [ इन्द्रिय और वस्तु के बीच में ] किसी प्रकार का व्यवधान पड़ जाने के कारण [किसी दूसरे तीव्र पदार्थ द्वारा वस्तु के ] अभिभूत ( अपेक्षाकृत शक्तिहीन ) होने के कारण तथा समान रूपवाले पदार्थों में मिल जाने के कारण [ प्रत्यक्षज्ञान को बाधा पहुँचती है । ]' बहुत दूर होने के कारण, जिस प्रकार पहाड़ों की चोटियों पर उगे हुए वृक्ष आदि को [ देखना कठिन है ] बहुत नजदीक होने के कारण, जैसे अपनी आँखों में लगे हुए अंजन आदि को नहीं देख सकते । इन्द्रियों में दोष होने के कारण बिजली आदि को नहीं देख पाते । मन के अव्यवस्थित होने के कारण, जैसे कामादि वासनाओं से मन के क्षुब्ध हो जाने पर, खूब प्रकाश में अवस्थित घटादि को नहीं देख पाते । सूक्ष्मता के कारण परमाणु आदि
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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