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________________ पाणिनि-दर्शनम् ४९५ जायमा जो मध्योदात्त-पद है । लेकिन ऐसा होता नहीं । होता है ऊपर जैसा ही-गोदोहः । यही कारण है कि समास का निषेध करते हैं । तदाह महोपाध्यायवर्धमानः१. लौकिकव्यवहारेषु यथेष्टं चेष्टताम् जनः । वैदिकेषु तु मार्गेषु विशेषोक्तिः प्रवर्तताम् ॥ २. इति पाणिनिसूत्राणामर्थवत्त्वमसौ यतः । _____जनिकर्तुरिति ब्रूते तत्प्रयोजक इत्यपि ॥ इति । तथा च शब्दानुशासनापरनामधेयम् व्याकरणशास्त्रमारब्धं वेदितव्यमिति वाक्यार्थः सम्पद्यते। इसे महोपाध्याय वर्धमान कहते हैं-लौकिक व्यवहार के समय तो लोग अपनी इच्छा से ही काम करें (क्योंकि लौकिक वाक्यों में स्वर का विचार नहीं होता )। किन्तु वैदिक शब्दों के प्रयोग में विशेष विधि के अनुसार चलें ॥ १ ॥ पाणिनि के सूत्रों की सार्थकता यही है नहीं तो वे 'जनिकर्तुः' (१।४।३० ) और 'तत्प्रयोजक' (१।४।५५ ) जैसे [ समास न होनेवाले समस्त पदों का ] प्रयोग करते हैं ॥ २ ॥ तो, इस तरह 'शब्दानुशासन' शब्द से भी अभिहित व्याकरण-शास्त्र का आरम्भ समझें, यह वाक्यार्थ निकला । विशेष—पाणिनि की बहुत-सी उक्तियाँ केवल स्वर-विचार के उद्देश्य से की गई हैं, लोक में उनका कोई काम नहीं। जैसे समास-निषेधक सूत्र, विभिन्न अनुबन्ध आदि । यही पाणिनि की विशेषोक्ति है-इनका लोक में काम नहीं, पर वेद में तो होता है। अतः पाणिनि के सूत्र निष्फल नहीं हैं । पाणिनि स्वयं लिखते हैं तृजकाभ्यां कर्तरि ( २।२।१५ ) अर्थात् जो षष्ठी कर्ता में होती है उसका समास तृच् प्रत्ययान्त या अकप्रत्ययान्त शब्द के साथ नहीं होता । जैसे-भवतः शायिका, आसिका, ( आपकी शय्या, आसन ) । किन्तु वे स्वयं इस नियम का उल्लंघन करते हैं और जनिकर्तुः ( = जनिकर्तृ ), तत्प्रयोजक: जैसे शब्दों का प्रयोग करते हैं । इससे पता लगता है कि समास के निषेधक सत्रों का यह प्रयोजन नहीं है कि ऐसे स्थानों में समस्त पदों को अशद्ध घोषित करें. प्रत्युत वे विशेष स्वर की सिद्धि में ही सहायक होते हैं। पाणिनि का यही लक्ष्य मालूम पड़ता है। ३. शब्दानुशासन से प्रयोजन की सिद्धि ) तस्यार्थस्य झटिति प्रतिपत्तये 'अथ व्याकरणम्' इत्येवाभिधीयताम् । अथ शब्दानुशासनमित्यधिकाक्षरं मुधाभिधीयत इति । मैवम् । शब्दानुशासनमित्यन्वर्थसमाख्योपादाने तदीयवेदाङ्गत्वप्रतिपादकप्रयोजनान्वाख्यानसिद्धः। अन्यथा प्रयोजनानभिधाने व्याकरणाध्ययनेऽध्येतृणां प्रवृत्तिरेव न प्रसजेत् ।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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