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________________ १८ सर्वदर्शनसंग्रहेव्यापक'-यह विशेषण दिया गया। उसे रखने से 'घटत्व' उपाधि नहीं आ सकती क्योंकि 'घटत्व' ( उपाधि ) में साध्य ( अनित्यत्व ) को व्याप्त करने की शक्ति नहीं, घटत्व ( जाति ) नित्य है। ___ इतने पर भी 'अश्रावणत्व' उपाधि के आने का अवकाश है यदि हम 'साध्य-समव्याप्ति'- यह विशेषण नहीं रखें। अश्रावणत्व ( उपाधि ) उपर्युक्त अनुमान के साधन ( उत्पन्नत्व ) को व्याप्त नहीं करता ( साधनाव्यापकत्वे सति ), क्योंकि शब्द-जैसी उत्पन्न होनेवाली वस्तुओं में अश्रावणत्व का अभाव ( अर्थात् श्रवणीयता ) है । पुनः, अश्रावणत्व ( उपाधि ) अपने साध्य ( अनित्यत्व ) को व्याप्त कर लेता है। यहां अनित्यत्व का अभिप्राय समझें-द्रव्यत्व-मात्र से व्याप्त ( अवच्छिन्न ) अनित्यत्व अर्थात् अनित्य कहलाने वाले सारे द्रव्य । किन्तु कुछ द्रव्य ( आत्मा, आकाश आदि ) नित्य हैं जिनमें भी अश्रावणत्व है इसलिए 'अश्रावणत्व' ( उपाधि ) [ द्रव्यत्व-मात्र से व्याप्त ] अनित्यत्व के साथ समव्याप्ति नहीं रखता और उपाधि के रूप में दिखलाई पड़ता है। यदि समव्याप्ति होती तो उपाधि नहीं दिखलाई पड़ती। अतः उपाधि के लक्षण में तीसरे विशेषण–साध्यसमव्याप्ति—की भी आवश्यकता है तभी अश्रवत्व-नामक उपाधि से बच सकते हैं। 'समासमा' से परा यह श्लोक समझें समासमाविनाभावावेकत्र स्तो यदा तदा । समेन यदि नो व्याप्तस्तयोहीनोऽप्रयोजकः ॥ यह इलोक श्रीहर्ष-रचित 'खण्डन-खण्ड-खाद्य' की आनन्दपूर्णाय-टीका में अनुमानखण्डन ( पृ० ७०७ ) के प्रकरण में उद्ध त किया गया है। ऊपर कहा जा चुका है कि व्याप्ति के दो भेद हैं—सम और असम । निरन्तर एक साथ रहने वाले दो पदार्थों की व्याप्ति सम कहलाती है जैसे-पृथिवी और गन्ध की। निरन्तर एक साथ न रहनेवाले ( असमनियतयोः ) दो पदार्थों की व्याप्ति असम कहलाती है जैसे-अग्नि और धूम की । आर्दैन्धनसंयोग ( उपाधि ) और धूम में समव्याप्ति होती है। किन्तु आइँन्धनसंयोग और अग्नि में असमव्याप्ति है । इस प्रकार दो व्याप्तियाँ हैं = धूम और अग्नि में 'अग्नि' असम या हीन व्याप्ति वाला है, किन्तु 'धूम' सम व्याप्तिवाला। तो, श्लोक का अर्थ है कि जब सम और असम दोनों व्याप्तियाँ ( अविनाभाव ) एक स्थान पर ही विद्यमान हों और सम (धूम ) के द्वारा अग्नि ( असम ) व्याप्त न किया जा सके तो वह हीन व्याप्ति वाला ( अग्नि ) प्रयोजक नहीं होता अर्थात् धूम रूपी साध्य का साधक ( हेतु ) नहीं बन सकता । किसी भी तरह, समव्याप्ति की अनिवार्यता स्पष्ट है। (१२. व्याप्तिज्ञान और उपाधिज्ञान में अन्योन्याश्रय दोष ) तत्र विध्यध्यवसायपूर्वकत्वानिषेधाध्यवसायस्य उपाधिज्ञाने जाते तदभाव विशिष्टसम्बन्धरूपव्याप्तिज्ञानं, व्याप्तिज्ञानाधीनं चोपाधिज्ञान
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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