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________________ अक्षपाद वर्शनम् ३९५ ( २ ) शरीर ( Body ) - आत्मा के भोग का अधिष्ठान ( आधार ) शरीर है । शरीर विभिन्न चेष्टाओं, इन्द्रियों और उनके अर्थों का भी आश्रय है । किसी वस्तु को छोड़ने या पाने के लिए चेष्टाएं शरीर में ही होती हैं। शरीर के अनुग्रह से इन्द्रियाँ अनुगृहीत होती हैं, उसी में कोईउपघात होने पर ये भी उपहत होती हैं- अपने-अपने अच्छे या बुरे विषयों की प्रवृत्ति दिखलाती हैं, उन इन्द्रियों का आश्रय भी शरीर ही है | शरीररूपी आयतन में इन्द्रियों और उनके अर्थों के सन्निकर्ष से उत्पन्न होनेवाले सुख और दुःख की संवेदना होती है । इसीलिए शरीर अर्थों का भी आश्रय है । 1 (३) इन्द्रियाँ ( Senses ) - इन्द्रियाँ भोग का साधन हैं जो शरीर से संयुक्त रहती हैं । ये पांच हैं-प्राण, रसन, चक्षु, त्वचा और श्रोत्र जिनसे क्रमश: सूंघना, स्वाद लेना, देखना, छूना और सुनना ये काम होते हैं । इन इन्द्रियों में शक्तिदान करनेवाले ये हैं - पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और आकाश जिन्हें भूत भी कहते हैं । C ( ४ ) अर्थ ( Objects ) — उपर्युक्त इन्द्रियों के द्वारा भोग्य ( Enjoyable ) वस्तुओं को अर्थ कहते हैं । घ्राणेन्द्रिय का अर्थ गन्ध है, रसनेन्द्रिय का रस, चक्षुरिन्द्रिय का त्वगिन्द्रिय का स्पर्श और श्रोत्रेन्द्रिय का शब्द । रूप, ( ५ ) बुद्धि ( Intellect ) – बुद्धि, ज्ञान और उपलब्धि ( Understanding ) इन तीनों को गौतम अनर्थान्तर अर्थात् पर्याय मानते हैं ( १।१।१५ ) यह चेतन है और शरीर तथा इन्द्रियों के संघात से पृथक् है । (६) मन ( Mind ) - सुखादि ज्ञानों का साधन इन्द्रिय मन है । इसी को अन्तःकरण अर्थात् आन्तरिक भावों को जाननेवाली इन्द्रिय भी कहते हैं । इसका चिह्न ( लिंग या पहचान ) है एक साथ कई ज्ञान की उत्पत्ति न होने देना । केवल इन्द्रियार्थसन्निकर्ष से यदि ज्ञान उत्पन्न होता तो घ्राणेन्द्रिय का सम्बन्ध गन्ध से तथा श्रोत्रेन्द्रिय का शब्द से एक साथ होकर दोनों ज्ञान ( गन्धज्ञान और शब्दज्ञान ) साथ-साथ उत्पन्न होने पर ऐसा नहीं होता, क्योंकि मन नियामक रूप से पृथक् करने के लिए प्रस्तुत रहता है । मन गन्धज्ञान कराने पर ही शब्द का ज्ञान करा सकता है । ( ७ ) प्रवृत्ति ( Volition ) - वाचिक, मानसिक और शारीरिक क्रिया को प्रवृत्ति कहते हैं । फिर शुभ और अशुभ के भेद से छह प्रकार की हो जाती है । वात्स्यायन शुभ और अशुभ प्रवृत्तियों में प्रत्येक के दस-दस भेद मानते हैं ( न्या० भा० १।१।२ ) । अशुभ प्रवृत्तियों में शरीर से प्रवृत्त हिंसा, अस्तेय और प्रतिषिद्ध मैथुन; वचन से प्रवृत्त अनृत, परुष, सूचन ( चुगली, शिकायत, निन्दा ) और असम्बद्ध भाषण करना; मन से प्रवृत्त परद्रोह, परधन को हड़पने की इच्छा और नास्तिकता । शुभ प्रवृत्तियों में शरीर के द्वारा दान, रक्षा और सेवा, वचन से सत्य, हित, प्रिय और स्वाध्याय, मन से दया, अस्पृहा और श्रद्धा । प्रवृत्तियों के ही कारण जन्म लेना पड़ता है ।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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