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________________ १५२ सर्वदर्शनसंग्रहे ( न्याय ) का विषय बननेवाला पदार्थ एक ही देश ( Aspect पहलू, पक्ष ) से विभूषित रहता है । [ नय में किसी एक पक्ष से भी काम चल जाता है, जैसे-घट: अस्ति, घटो नास्ति । किन्तु सभी ज्ञानों का विषय बनने के लिए, जिससे वस्तु के सभी पक्ष मालूम हो जायं, एक पक्ष या देश से काम नहीं चलता । उसके लिए वस्तु को अनेकान्त ( अनिश्चयात्मक ) मानना पड़ेगा । भावात्मक रूप से ( Positively ) वस्तु के विषय में कुछ कह देना सीमित करके अपने दृष्टिकोणों का उस पर आरोपण कर देना है। इसलिए सुभग मार्ग है कि उसे अनेकान्तात्मक माने जिसके अन्दर सारे पक्ष छिपे हों। ]'' . [ वस्तु के ] एक ही पक्ष ( Aspect ) पर आधारित अनेक न्याय जब प्रमाणकोटि में प्रवृत्त हों ( प्रामाणिक होना चाहते हों), तब संपूर्ण अर्थों (All aspects) का निश्चय करनेवाला 'स्यात्' [ शब्द से विशिष्ट घट आदि ] पदार्थ प्रामाणिक (श्रुत Trustworthy ) समझा जाता है।' ५०. अन्योन्यपक्षप्रतिपक्षभावाद् यथा परे मत्सरिणः प्रवादाः। नयानशेषा नविशेषमिच्छन् न पक्षपाती समयस्तथार्हतः ॥ ( हेमचन्द्रकृत द्वितीयद्वात्रिंशिका वी० स्तु० श्लो० ३० ) जिस प्रकार दूसरे [ दर्शनों के ] सिद्धान्त एक दूसरे को पक्ष और प्रतिपक्ष बनने के कारण मत्सरता से भरे हुए हैं, उस प्रकार अर्हन्मुनि का सिद्धान्त पक्षपाती नहीं है क्योंकि यह सारे नयों ( Propositions ) को विना भेदभाव के ग्रहण कर लेता है। विशेष-पक्ष = अपना सिद्धान्त । प्रतिपक्ष = विरोधियों का सिद्धान्त । सांख्य के लिए सत्कार्यवाद पक्ष है, असत्कार्यवाद प्रतिपक्ष । दूसरे दार्शनिकों के सिद्धान्त पक्षपाती हैं क्योंकि वस्तु किसी एक पहलू का विचार प्रस्तुत करते हैं, सर्वांगपूर्ण विचार वे नहीं करते । ऐसा करना असम्भव भी है । जैनों का सिद्धान्त इस पचड़े से दूर है, किसी पक्ष का आश्रय न लेकर सभी पक्षों को स्वीकार करता है । जैनों का दृष्टिकोण बहुत उदारवादी है, किसी प्रकार का भेद-भाव न मानकर सभी पक्षों को समान रूप से देखते हैं । यही कारण है कि अनेकान्तवाद स्वीकार किया जाता है। १. वाक्यों की तीन कोटियाँ हैं-दुर्नय, नय और प्रमाण-वाक्य। 'घटः अस्ति एव' दुनय है क्योंकि यह मिथ्या है । 'नास्तित्व' आदि के होते हुए भी उन्हें छिपाकरः अस्तित्व' पर जोर देना मिथ्यारूप है । 'घट: अस्ति' नय है। यह दुर्नय नहीं है क्योंकि नास्तित्व आदि को यह छिगता नहीं, बल्कि उनके प्रति उदासीनता ( Indifference ) दिखलाता है । यह प्रमाण भी नहीं, क्योंकि 'स्यात्' का प्रयोग न होने से दूसरे धर्मों ( नास्तित्वादि ) की मचना नहीं मिलनी । 'स्यादस्ति' प्रमाण-वाक्य है । नय के विषय में देवसूरि का कहना है यते येन श्रुताध्यप्रमाणविषयीकृतस्य अर्थस्य अंशत: तदितरांशौदासीन्यतः स प्रतिपन प्रायविशेषो नयः ( अभ्यं० ) ।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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