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________________ २८२ सर्वदर्शनसंग्रहेभवलक्षणकृत्य-पञ्चककारणं, स्वेच्छानिमितं तच्छरीरं न चास्मच्छरीरसदृशम् । तदुक्तं श्रीमन्मृगेन्द्रे : मलाद्यसम्भवाच्छक्तं वपुर्नतादृशं प्रभोः ॥ इति ॥ अब इसे स्वीकार करें ( ईश्वर को सशरीर मानें ) तो भी कहेंगे कि शरीरधारी मानने पर भी भगवान् में पूर्वोक्त दोषों के लगने का प्रसंग नहीं है। परमेश्वर में मल, कर्म आदि पाशजालों की सम्भावना ही नहीं, अतः उसका शरीर प्राकृत ( प्रकृति से उत्पन्न, हम लोगों की तरह का ) नहीं है, उसका शरीर शक्ति से बना है। [ कुछ पाश हैं जैसे-मल, प्राणियों के कर्म, माया की आवरण-शक्ति । इन सबों का वर्णन इसी दर्शन में प्रायः अन्त में होगा। इन पाशों का क्षेत्र प्रकृति है। जिनके शरीर प्राकृत होते हैं उन्हीं में ये पाश रहते हैं। परमेश्वर अनादिकाल से मुक्त है। यदि ऐसा न मानें तो अनवस्था-दोष उत्पन्न होगा । ईश्वर के मुक्त न होने पर कोई उसे मुक्ति देनेवाला तो होगा, फिर उसे भी कोई मुक्त करेगा इत्यादि । इसलिए कोई-न-कोई तो अनादि मुक्त होगा ही, जो ईश्वर ही है । अनादि मुक्त मानने से पाश-मुवत भी वह होगा। इसलिए ईश्वर का शरीर शक्ति ( मातृका, वर्णमाला ) से निर्मित मानते हैं । शक्ति के रूप में ईशान आदि पाँच मंत्र हैं, जिनके द्वारा परमेश्वर के मस्तक आदि की कल्पना की जाती है। वे इस प्रकार हैं--ईश्वर का मस्तक 'ईशानः०' ( महानारायणोपनिषद्, २१ ) मन्त्र से बना है, मुख 'तत्पुरुषाय०' (म०, २० ) से, हृदय 'अघोरेभ्यो०' ( म०, १९ ) से, गुह्यस्थान 'वामदेवाय०' ( म०, १८ ) से तथा पाद 'सद्योजातं.' ( म०, १७ ) मन्त्र से बना है। इस प्रकार की प्रसिद्धि होने से, उसका शरीर स्वेच्छा से ही निर्मित हुआ है, वह क्रमशः अनुग्रह ( दया ), तिरोभाव ( अन्तर्धान Concealment ), आदान-लक्षण ( संहार ), स्थिति-लक्षण ( पालन ) और उद्भव-लक्षण ( सृष्टि )-इन पाँच प्रकार के कार्यों का कारण है, इसलिए हम लोगों के शरीर की तरह नहीं है । श्रीमन्मृगेन्द्र ने कहा है-'प्रभु के शरीर में मल आदि होना असम्भव है, इसलिए [ हम लोगों के शरीर की तरह ) उनका शरीर नहीं है, किन्तु उनका शरीर शक्तिनिष्पन्न है। विशेष-तन्त्रशास्त्र में मन्त्रों को ही शक्ति माना गया है। मन्त्र का एक-एक अक्षर अनुभव-शकिा का प्रतीक है-शक्तिस्तु मातृका ज्ञेया सा च ज्ञेया शिवात्मिका । मातृकाओं या वर्णमालाओं में ही सारे मन्त्रों को सता होनी है । कालिकापुराण में कहते हैं - ये ये मन्त्रा देवतानामृषीणामथ रक्षसाम् । ते मन्त्रा मातृकायन्त्रे नित्यमेव प्रतिष्ठिताः ।। ईश्वर का शरीर मंत्रमय होने से उसके अवयव भी मंत्रों से ही बनते हैं।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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