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________________ सर्वदर्शनसंग्रहे हार के प्रवर्तक के रूप में होती है । [ प्रभाकर के सामने समस्या है कि सभी ज्ञान जब सत्य हैं तब लोग ‘भ्रम' शब्द से किस वस्तु का बोध करते हैं ? जिन स्थलों में ( जैसे सौपी को चाँदी मानने में ) प्रवृत्ति निष्फल हो जाय, उन्हें हम भ्रम कहा करते हैं । और बाध ? रजत के व्यवहार का निषेध होने पर उसे बाध कहते हैं (जैसे 'नेदं रजतम्' में ) । यह कहने से शंकराचार्य सन्तुष्ट होनेवाले नहीं हैं । ] ( १२ क. प्रभाकर -मत से अभाव का खण्डन ) ܘܘܘ किं च नेदं रजतमिति बाधकावबोधो नाभावमवगाहते। भावव्यतिरेकेणाभावस्य दुर्ग्रहणेत्वात् । यद्येवम्, अङ्ग नास्तीति प्रत्ययस्य किमालम्बनम् ? अपरथा माहामानिकपक्षानुप्रवेश इति चेत् — मेवं भाषिष्ठाः । अभावस्य धमिप्रतियोगिनिरूपणाधीननिरूप्यत्वेऽवश्याभ्युपगमनीये दृश्ये प्रतियोगिन्यदृश्ये वा स्मर्यमाणेऽधिकरणमात्रबुद्धेरेव 'नास्तीति' व्यवहारोपपत्तावतिरिक्ताभावकल्पनायां प्रमाणाभावात् । इसके अतिरिक्त 'यह रजत नहीं है' यह बाधक का ज्ञान अभाव के रूप में नहीं है । कारण यह है कि भाव के अतिरिक्त अभाव नाम की वस्तु का ग्रहण करना ही कठिन है । " [ इस पर वेदान्ती लोग शंका करते हैं - ] हे महोदय ! यदि ऐसी बात है तो हमें बतलाइये कि 'नहीं है' इस प्रतीति ( Apprehension ) का आधार क्या है ? यदि ऐसा नहीं कर सके ( = आधार के बिना भी प्रतीति मानते हैं ) तो मध्यमिक (शून्यवादी ) बौद्धों के पक्ष में आप जा रहे हैं । [ ये बौद्ध सम्पूर्ण व्यवहारों को आलम्बनरहित मानते हैं ।] इस पर हम कहेंगे कि ऐसा मत कहो । [ इसका कारण आगे बतला रहे हैं । ] अभाव का निरूपण धर्मी और प्रतियोगी के निरूपण के ही अधीन रहता है । [ धरातल में घट नहीं है - यहां घटाभाव का ज्ञान हो रहा है जिसमें धरातल धर्मी है और घट प्रतियोगी । दोनों के ज्ञान के पश्चात् ही घटाभाव का ज्ञान हो सकता 1] जिसकी सिद्धि करना आवश्यक है वह प्रतियोगी (घट) दृश्य हो या अदृश्य हो किन्तु उसका स्मरण किया जा रहा है। ऐसा होने पर मात्र आधार का ज्ञान रहने से ही 'नहीं है' इस व्यवहार की सिद्धि हो जायगी । अतः अलग से अभाव की कल्पना करने के लिए कोई प्रमाण ही नहीं है । [ धर्मों की कल्पना से अधिक अच्छी कल्पना धर्मं की ही होती है । अतः अभाव किसी अधिकरण का एक धर्म है तथा केवल भूतल के रूप में है । इसी से 'घटो नास्ति' का व्यवहार चलता है । घट नहीं है = भूतल का शुद्ध ज्ञान । केवल भूतल का ज्ञान घटादि प्रतियोगी के रहने पर ही सम्भव है। हां, प्रतियोगी का स्मरण तो करना ही है । भूतल का ज्ञान रहने से 'घट नहीं है' का ज्ञान हो जायगा । ] १. देखिए, रामानुजदर्शन, पृ० १९०-९१ ।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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