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________________ ५९७ पातञ्जल- दर्शनम् इनमें पहला विकल्प ( णिनि माननेवाला ) ठीक नहीं । कारण यह है कि 'सुप्यजाती गिनिस्ताच्छील्ये' ( पा० सू० ३।२७८ ) अर्थात् ' वह उसका शील या आदत है' इस अर्थ में जातिवाचक को छोड़कर किसी भी सुबन्त शब्द के उपपद में ( पूर्व में ) रहने पर धातु सेनि प्रत्यय होता है [ जैसे उष्णं भुङ्क्ते, तच्छील: उष्णभोजी = जिसे बराबर गर्मागर्म भोजन की आदत । जो कभी-कभी गर्म भोजन करता है उसे उष्णभोजी नहीं कहेंगे । ] पहले से [ 'सुपि स्थ:' ( ३1२1४ ) सूत्र से अनुवृत्त ] 'सुपि' शब्द के वर्तमान रहने पर भी प्रस्तुत सूत्र में जो 'सुपि' शब्द पुनः लिया गया है उसका अभिप्राय यही है कि उससे 'उपसर्ग उपपद' की निवृत्ति हो, अतः उपसर्गसहित धातु में णिनि प्रत्यय की प्राप्ति नहीं हो सकती । [ 'सुपिस्थ:' ( ३१२१४ ) से 'सुपि' शब्द की अनुवृत्ति आगे के सूत्रों में होती है । उन सूत्रों में अलग से 'सुपि' कहने की आवश्यकता नहीं है। यदि किसी सूत्र ( जैसे'सुप्यजाती ० ' में ) 'सुपि' कहा गया तो कोई विशेष कारण है । वह कारण क्या है ? बात यह है कि 'सत्सूद्विषद्रुहदुहयुजविदभिदच्छिदजिनीराजामुपसर्गेऽपि क्विप्' ( ३२२६१ ) इस लम्बे सूत्र से एक नया प्रकरण आरम्भ हो गया- - इस सूत्र में गिनाये गये धातुओं से सुबन्त के उपपद में होने पर तो प्रत्यय होते ही हैं ( 'सुपि स्थः' से 'सुपि' की अनुवृत्ति करके ) साथ-साथ उपसर्ग के उपपद में रहने पर भी प्रत्यय होते हैं । 'सुप्यजाती' में इसी उपसर्ग की निवृत्ति करने के लिए 'सुपि' का पुनः प्रयोग हुआ है । ( ३।२।६१ ) से 'सुपि उपसर्गे' दोनों की अनुवृत्ति होने लगी थी- दोनों की निवृत्ति साथ-साथ की गई और अभीष्ट 'सुपि ' का प्रयोग किया गया है । फलतः 'अनु + शो + णिनि' नहीं हो सकता । सोपसर्गक धातु से णिनि प्रत्यय नहीं होता । ] - यदि किसी प्रकार इस णिनि को स्वीकार भी करें' तो भी 'अचो ञ्णिति' अर्थात् ञित् या गित ( जिस प्रत्यय में व् या ण् का अनुबन्ध लगा हो ) प्रत्यय के होने पर उसके पूर्व के स्वरवर्ण ( अच् ) को वृद्धि हो ( पा० सू० ७२।११५ ) – इस सूत्र से वृद्धि की प्राप्ति होगी और 'अतिशायिन' आदि शब्दों की तरह 'अनुशायिन् ( अनुशायी ) ' शब्द का ही प्रयोग होता । [ अनु + √ शी + णिनि वृद्धि होने से, अनु +इन् + आयादेश = अनुशायिन् । तात्पर्य यह है कि णिनि प्रत्यय से 'अनुशयी' नहीं हो सकता । ] न द्वितीयः । ' एकाक्षरात्कृतो जातेः सप्तम्यां च न तौ स्मृतौ' इति तत्प्रतिषेधात् । अत्र चानुशयशब्दस्याजन्तत्वेन कृदन्तत्वात् । तस्मादनु १. 'सुपिस्थ : ' में सुप् का अर्थ उपसर्गहीन सुप् ( केवल ) है, 'सत्सूद्विप०' में उपसर्ग का पृथक् विधान है | यदि 'सुपि स्थः ' से सुपि लाते तो 'अनुशायी' आदि शब्दों में णिनि प्रत्यय नहीं होता । उपसर्ग से भी णिनि प्रत्यय हो अतः पुनः सुपि वहा है । उपसर्ग होने पर णिनि होता भी है - अनुयायिवर्ग: ( रघु० २1४ ), विसारि सर्वत: ( माघ ११२ ), अनुजीविभि: ( किरा० १।४ ) आदि । यह व्याख्या भाप्यसम्मत है ।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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