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________________ ( ३७ ) माध्व-सम्प्रदाय के अनुसार तत्त्वों की संख्या दस है - द्रव्य, गुण कर्म, सामान्य, विशेष, विशिष्ट, अंशी, शक्ति, सादृश्य और अभाव । द्रव्यों की संख्या बीस है - परमात्मा, लक्ष्मी, जीव, अव्याकृत, आकाश, प्रकृति, तीन गुण, महत्तत्त्व, अंहकारतत्त्व, बुद्धि, मन, इन्द्रिय, तन्मात्र, महाभूत, ब्रह्माण्ड, अविद्या, वर्ण, अन्धकार, वासना, काल और प्रतिबिम्ब । गुणों की संख्या अनेक है । रूप, रस आदि चौबीस गुणों के अलावे आलोक, दम, कृपा, बल, भय, लज्जा, गम्भीरता, सुन्दरता, धीरता, वीरता, सूरता, उदारता आदि भी गुण में ही चले आते हैं । कर्म के तीन भेद हैं – विहित, निषिद्ध और उदासीन ! नित्य और अनित्य के भेद से सामान्य भी दो तरह के हैं । भेद न होने पर भी भेद के व्यवहार का निर्वाह करने वाले अनन्त विशेष हैं । माध्व लोग समवाय नहीं मानते । विशेषण के सम्बन्ध से विशेष्य में होने वाला आकार ही विशिष्ट नाम का पदार्थ है । अंशी का मतलब है - हाथ, डेग इत्यादि के द्वारा नापा जाने बाला पदार्थ । शक्तियाँ चार हैं, अचिन्त्य - शक्ति, आधेय - शक्ति, सहज-शक्ति और पद-शक्ति । सादृश्य तो लोक में प्रसिद्ध ही है किन्तु यह दोनों पदार्थों में स्थित नहीं रहता । दूसरे के आधार पर एक वस्तु में ही स्थित रहता है । वैशेषिकों के सामन ही यहाँ चार प्रकार के अभाव माने जाते हैं प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभाव । अविद्या पाँच खण्डों की होती हैं— मोह, महामोह, तामिस्र, अन्ध- तामिस्र और तम । वर्णों की संख्या इकावन (५१ ) मानी गयी है इस प्रकार द्वैत-मत में तत्त्वों का विवेचन बहुत अधिक विश्लेषण के साथ हुआ है. अब महेश्वर-सम्प्रदाय के अनुसार तत्त्वों पर विचार करें। पाशुपत - दर्शन अनुसार पाँच तत्त्व हैं—कार्य, कारण, योग, विधि और दुःखान्त । कार्य का अर्थ है अस्वतन्त्र पदार्थ जिसके तीन भेद हैं- विद्या, कला और पशु । जीव के गुणों को विद्या कहते हैं, अचेतन पदार्थ को कला कहते हैं और पशु तो जीव ही है । कारण के दो भेद हैं- स्वतन्त्र और परतन्त्र । पाँच इन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और तीस अन्तःकरण मिलकर परतन्त्र कारण बनाते हैं । स्वतन्त्र कारण परमेश्वर है । आत्मा और ईश्वर के सम्बन्ध को योग कहते हैं, धर्मकार्य की सिद्धि करने वाली विधि है और मोक्ष दुःखान्त । के शैव दर्शन में पति, पशु और पाश, ये तीन पदार्थ कहे गये हैं। पति का अर्थ है शिव, पशु जीव है और पाश के चार भेद हैं मल, कर्म, माया और रोध-शक्ति । इन सबों का विचार प्रस्तुत ग्रन्थ में किया है । प्रत्यभिज्ञा - दर्शन में जीव और परमात्मा दोनों को एकाकार कहा गया है । किन्तु जड़ पदार्थ आत्मा से भिन्न भी है और अभिन्न भी । और बातें तो पशुपत-दर्शन से मिलतीजुलती ही हैं । रसेश्वर दर्शन भी तत्त्व-विचार में कोई नयी चीज नहीं देता ।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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