SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बौद्ध-दर्शनम् ३५ बीच किसी तीसरे प्रकार ( विकल ) की सत्ता नहीं हो सकती। वचन में ही विरोध होने के कारण विरोधियों ( विरुद्ध पदार्थों ) में कभी भी एकता नहीं होती। [ आशय यह है कि क्रम और अक्रम परस्पर विरोधी हैं, दोनों के बीच में तीसरे विकल्प की आशंका नहीं है जो अर्थक्रियाकारित्व को व्याप्त कर सके । किसी वस्तु की सत्ता या तो क्रमिक होगी = आगे-पीछे करके या अक्रमिक अर्थात् एक साथ ही होगी। बाद में यह दिखलाया जायगा कि ये दोनों क्रम और अक्रम स्थायी वस्तु से पृथक् हैं और अर्थक्रिया को भी व्यावृत्त करते हुए क्षणिकत्व-भावना को सिद्ध करते हैं। अर्थमूलक क्रिया की शक्ति केवल क्षणिक में ही है।] विशेष-अर्थक्रियाकारित्वलक्षणं सत् = प्रयोजनभूता या क्रिया तत्कारित्वमेव सत्वम् ( अभ्य० ) प्रयोजन के रूप में जो कार्य है उसे करने की क्षमता होना ही सत्ता का लक्षण है । दूसरे शब्दों में, सत्ता वह है जो कुछ कार्य उत्पन्न करने की क्षमता रखे । शशविषाण के सदृश असत् वस्तु कभी भी कोई कार्य उत्पन्न नहीं कर सकती। सत्ता का यह लक्षण स्वीकार करने पर सभी पदार्थों को क्षणिक मानने में सुविधा होती है। मान लें कि बीज क्षणिक नहीं है, स्थायी है तो इसकी सत्ता होने के कारण क्षण-क्षण में यह नएनए कार्य उत्पन्न करता रहेगा । यदि बीज सभी क्षणों में समान ही रहे, अपरिवर्तित हो, तो सदा वह उसी प्रकार का कार्य उत्पन्न करेगा किन्तु वस्तुस्थिति इसके विपरीत है । घर में रखा बीज वही नहीं जो खेत में डाला गया है। दोनों के कार्य भिन्न-भिन्न हैं । यदि यह तर्क किया जाय कि वस्तुतः बीज वही कार्य उत्पन्न नहीं करता किन्तु उसमें क्षमता है जो उचित उपादानों (जैसे-पृथ्वी, जल आदि ) के संसर्ग से अभिव्यक्त हो जाती है। अतः बीज सदा वही है । यह तर्क असहाय है, क्योंकि ऐसी दशा में यह स्वीकार करते ही हैं कि पहले क्षण का बीज अंकुरण का कारण नहीं प्रत्युत विभिन्न उपादानों के संसर्ग से परिष्कृत बीज ही उसका कारण है । अतः बीज तो परिवर्तित हो गया। इसी प्रकार कोई भी वस्तु दो क्षण नहीं ठहरती। सभी वस्तुएं क्षणिक हैं। इसकी सिद्धि के लिए सत्ता का एक विशिष्ट लक्षण ( अर्थक्रियाकारित्व ) करना पड़ता है। नीलादिक्षण-नील एक उदाहरण है, वस्तुतः इसे रंग से कोई सम्पर्क नहीं। प्राचीन नैयायिक ( बौद्ध और गौतमीय दोनों ) लोग उदाहरण देने में नील का प्रयोग करते थे। जिस प्रकार नव्य-न्याय में 'घट' को उदाहरण के रूप में रखते हैं। इसलिए नील वस्तुवाचक है । क्षण = क्षणिक-पदार्थ या पदार्थ । तौ च क्रमाक्रमौ स्थायिनः सकाशाद व्यावर्तमानौ अर्थक्रियामपि व्यावर्तयन्तौ क्षणिकत्वपक्ष एव सत्त्वं व्यवस्थापयतः इति सिद्धम् । और ये दोनों क्रम अक्रम स्थायी पदार्थ से पृथक होकर, अर्थक्रिया को भी ( स्थायी पदार्थ से ) पृथक कर देते हैं तथा क्षणिकत्व के पक्ष में ही सत्ता होने की व्यवस्था करते हैं-यही सिद्ध करना था।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy