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________________ सर्वदर्शनसंग्रह तपस्या के बीच का मार्ग) का प्रतिपादन करने से ये माध्यमिक हुए। तत्पश्चात्, तत्त्वविवेचन की दृष्टि से शाश्वतवाद और उच्छेदवाद की ऐकान्तिक विचारधाराओं को छोड़कर इन्होंने मध्य-पथ का आलम्बन लिया । शाश्वतवाद वह सिद्धान्त है जिसके अनुसार आत्मा और परलोक भी नित्य हैं । दीघनिकाय में ६२ मतवादों में इसका उल्लेख है। दूसरी ओर उच्छेदवाद अजितकेशकम्बल का मत था जिसमें मृत्यु के अनन्तर आत्मा की सत्ता में विश्वास नहीं किया जाता । पृथिवी आदि चार तत्वों से बना हुआ शरीर मरने के बाद इन्हीं में विलीन हो जाता है, कुछ भी नहीं बचता । इसके अलावे शून्यवाद की स्थापना सत् और असत् के मध्य-बिन्दु पर ही हुई है इसलिए भी इस सम्प्रदाय को माध्यमिक कहते हैं । ( १८. योगाचार-मत-विज्ञानवाद ) गुरूक्तं भावनाचतुष्टयं बाह्यार्थस्य शून्यत्वं चाङ्गीकृत्यान्तरस्य शून्यत्वं चाङ्गीकृतं कथमिति पर्यनुयोगस्य करणात् केषाञ्चिद्योगाचारप्रथा। एषा हि तेषां परिभाषा-स्वयंवेदनं तावदङ्गीकार्यम् । अन्यथा जगदान्ध्यं प्रसज्येत । तत्कीतितं धर्मकोतिना अप्रत्यक्षोपलम्भस्य नार्थदृष्टिः प्रसिध्यति । इति । दूसरे कुछ ( बौद्धों को योगाचार के नाम से पुकारते हैं, क्योंकि आध्यात्मिक गुरुओं की बताई हुई चारों भावनाओं और बाह्य पदार्थों की शून्यता का अंगीकरण ( आचार) करके पुनः यह प्रश्न ( योग ) भी करते हैं कि आन्तरिक-पदार्थों ( जैसे-चित्तादि ) की शून्यता क्यों स्वीकार करते हैं ? चूंकि उनकी यह परिभाषा ( सिद्धान्त ) है-कम-से-कम अपना ज्ञान (स्वयंवेदन Self-Subsistent Knowledge ) तो स्वीकार करें. नहीं तो ऐसा प्रसंग हो जायगा कि समूचे संसार को अन्धा मानना पड़ेगा ( यदि अपना ज्ञान या ज्ञाता का ज्ञान भी शन्य ही हो तो जाननेवाला कौन रहेगा ? ज्ञाता के अभाव में पूरा संसार ही अन्धा है, किसी को कुछ भी नहीं सूझता-आन्तर-बाह्य सभी तो शून्य हैं। इसीलिए योगाचार-मत में बाह्य पदार्थ शून्य है, आन्तर सत्य )। ऐसा ही धर्मकीर्ति ने कहा भी है-'जो प्रत्यक्ष को भी नहीं मानता, पदार्थों की दृष्टि भी उसकी ठीक नहीं है।' (धर्मकीर्ति के कथन का अभिप्राय है कि जिस बुद्धि से हम पदार्थों का ज्ञान पाते हैं, उसे तो मानना होगा, उसे शून्य मानने पर पदार्थों के विचार की शक्ति कहाँ से आवेगी ? यहाँ पर प्रत्यक्ष का अभिप्राय है बुद्धि की क्षमता, ज्ञाता का ज्ञान, स्वसंवेदन इत्यादि । प्रसिद्धयति सामर्थ्य है )। विशेष-योगाचार का दूसरा नाम विज्ञानवाद है । इसका जन्म शून्यवाद की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप हुआ था । माध्यमिकों के अनुसार समस्त संसार असत्य प्रतीत होता है किन्तु इनका कहना है कि जिस बुद्धि से यह प्रतीत होता है, उसे तो सत्य मानें । अतएव बुद्धि, चित्त, मन या विज्ञान ही एकमात्र सत्य पदार्थ है। विज्ञान को मानने से ही इसका
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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